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व्यापारी मिथ्या आस्था का त्याग करें
जरूरी है इच्छाओं का सीमकरण
भगवान महावीर ने कहा-इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं । यह बहुत ही गहरी बात है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति की लालसा बढ़ती है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता चला जाता है। लोभ बढ़ता चला जाता है, त्यों-त्यों उसके जीवन में असंयम की मात्रा भी क्रमश: बढ़ती चली जाती है । इसका कारण ? कारण बहुत स्पष्ट है । अन्तहीन लालसाओं की पूर्ति के लिए वह शोषण और अनैतिक आचरण के लिए भी तत्काल उतारू हो जाता है। अवांछनीय-से-अवांछनीय प्रवृत्ति करने में उसे कोई संकोच या लज्जा की अनुभूति नहीं होती। आज व्यापारियों के जीवन में ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है। मैं उनसे कहना चाहूंगा कि वे अपना आत्मालोचन करें, अन्तर् को टटोलें, क्या वे ऐसा कर वास्तविक सुख और शांति की अनुभूति करते हैं ? मैं जानता हूं, वे नहीं करते । यदि करते तो त्यागी-अकिंचन साधु-संतों के पास क्यों आते ? सच्चे सुख और शांति की चाह ही उन्हें उनके चरणों में उपस्थित करती है। पर साधु-संतों के चरणों में उपस्थित होने पर भी उन्हें तब तक सुख और शांति कैसे मिल सकेगी, जव तक कि वे उनके बताए गए मार्ग पर नहीं बढ़ेंगे, इच्छाओंआकांक्षाओं का अल्पीकरण और संकोच नहीं करेंगे। सम्यक् आस्था निर्मित हो
___मैं देखता हूं, आज अधिकांश व्यापारियों की यह मान्यता बन गई है कि व्यापार और सत्यनिष्ठा से व्यापार-व्यवसाय नहीं चल सकता । यदि कोई ऐसी आदर्श की बात करता है, तो उसे भूखे मरना पड़ता है। इसी का यह परिणाम है कि व्यावसायिक आदान-प्रदान में प्रामाणिकता, नैतिकता, ईमानदारी आदि तत्वों का क्रमश: ह्रास होता जा रहा है। दिखाया कुछ जाता है और दिया कुछ जाता है। यह कितनी जघन्य और जुगुत्सित बात है ! फिर भारतीय व्यापारियों पर तो यह आरोप विशेष तौर पर है, जो कि वर्तमान स्थितियों को देखते हुए गलत नहीं लगता । व्यापार-व्यवसाय में इस प्रकार की अप्रामाणिकता बरतनेवाले इस तथ्य को क्यों भूल जाते हैं कि
व्यापारी मिथ्या आस्था का त्याग करें
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