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आस्थाहीनता का युग
आज का युग विकास का युग माना जाता है। विज्ञान नित नए-नए आविष्कारों से संसार को चमत्कृत कर रहा है, सुख-सुविधाओं से विभिन्न साधन उपलब्ध करा रहा है । पर यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ तो भौतिक विकास अपने उत्कर्ष पर है और दूसरी तरफ मानवता का दुर्भिक्ष पड़ रहा है ! अनैतिकता अनियंत्रित गति से चारों ओर प्रसार पाती जा रही है । इसके परिणामस्वरूप मनुष्य का जीवन अप्रामाणिकता, चौर्य, झूठ, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, हिंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों से ओतप्रोत हो रहा है । भले लोग एक-दूसरे पर बुरा होने का आरोप लगाते हैं, पर सचाई यह है कि समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है, जो बुराइयों से अछूता हो । विद्यार्थी, अध्यापक, व्यापारी, राज्यकर्मचारी, मजदूर सभी वर्गों की स्थिति कुछ कमोबेश एक जैसी है । राष्ट्र के हितचिंतक इस स्थिति से काफी चिंतित हैं । निश्चित ही यह स्थिति अच्छी नहीं है, पर मैं इससे भी अधिक गंभीर बात इसको को मानता हूं कि आज मनुष्य सचाई, प्रामाणिकता, ईमानदारी आदि के प्रति आस्थाहीन होता जा रहा है । यह कहा जाना कि झूठ के बिना काम नहीं चल सकता, कम तोल-माप आदि के बिना व्यापार-व्यवसाय नहीं चल सकता, उसकी श्रद्धाहीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । इसे मैं झूठ बोलने, मिलावट करने, कम तोल-माप करने आदि से भी ज्यादा बड़ी बुराई मानता हूं। शराब पीना निश्चित ही बुरा है, पर उससे भी अधिक बुरा यह मानना है कि शराब पीना अच्छा है ।
सम्यक् आस्था का निर्माण हो
सबसे बड़ा पाप
पूछा जा सकता है, आप श्रद्धाहीनता या असम्यक् श्रद्धा को झूठ बोलने, चोरी करने, शराब पीने जैसी दुष्प्रवृत्तियों से भी अधिक बुरा क्यों मानते हैं ? उत्तर बहुत साफ है। श्रद्धाहीनता या असम्यक् श्रद्धा को मैं झूठ, चोरी आदि दुष्प्रवृत्तियों से भी अधिक बड़ी बुराई इसलिए मानता हूं कि उसमें व्यक्ति का दृष्टिकोण मिथ्या बन जाता है। यानी वह गलत को सही
महके अब मानब - मन
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