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समाज-सुधार का आधार-व्यक्ति-सुधार
कल और आज
भारतीय संस्कृति विश्व की महान् संस्कृति है। इस संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां सत्ताधीशों एवं धनकुबेरों को बहमान नहीं मिला । यहां प्रतिष्ठा मिली उन त्यागी-तपस्वी साधु-संतों को, जिन्होंने धनवैभव और सत्ता को ठुकराकर संयम, चारित्र और सेवा का जीवन अपनाया । उसी की यह निष्पत्ति माननी चाहिए कि अर्थवाद भारतीय जीवन पर हावी नहीं हो सका। पर युग बदला, स्थितियां बदलीं, जन-मानस बदला और आज सब कुछ उस अतीत गौरव के प्रतिकल हो रहा है। जीवन पर अर्थ प्रभावी और हावी हो गया है । जीवन का मूल्यांकन अर्थ में समाहित हो चला है । येन-केन-प्रकारेण अर्थ का संग्रह कर लेना मात्र ही जीवन का लक्ष्य हो गया है। मेरी दृष्टि में यह सांस्कृतिक पतन और आध्यात्मिक गिरावट है । इसके दुष्परिणाम हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं। चारों ओर शोषण, विश्वासघात, अप्रामाणिकता, अनैतिकता और हिंसा का खुला तांडव हो रहा है। यह स्थिति देखकर मेरे मन में बहुत विचार आता है । अनेक बार मस्तिष्क में यह प्रश्न कौंधता है कि अतीत के चारित्रिक गौरव से सम्पन्न भारतीयजन क्या इस स्थिति पर गंभीरता से ध्यान देंगे ? चितन करेंगे ? जीवन में व्याप्त बुराइयों की कालिख धो डालने का साहस जुटा पाएंगे ? अणुव्रत आंदोलन इस दिशा में उनका कुशल मार्गदर्शन कर सकता है । समाज-सुधार की प्रक्रिया
आज व्यक्ति समाज-सुधार और राष्ट्र-सुधार की लम्बी-चौड़ी बातें करता नहीं थकता । पर महत्त्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि सुधार की इस उदात्त भावना से क्या वह अपना जीवन संजोने की भी बात सोचता है ? यों सुधार की बात चाहे जहां-कहीं से उठे, जिस-किसी स्तर पर उठे, उसका स्वागत है, तथापि मैं कहूंगा कि आप औरों के सुधार की बातों को एक बार गौण करें, पहले अपना सुधार करें। यह इसलिए कि जब तक व्यक्ति स्वयं का सुधार नहीं कर लेता, तब तक न तो उसकी आवाज का कोई असर
महके अब मानव-मन
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