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० चरित्र-विकास के बिना कोई भी समाज और राष्ट्र उन्नत नहीं हो
सकता । (२०) • सुख-शांति का अक्षय कोष अपनी आत्मा ही है। जैसे-जैसे हमारी
आत्मा विशुद्ध बनती जाती है, वैसे-वैसे वह अक्षय कोष प्रकट होने लगता है। (२२) भौतिक पदार्थों या भोग-विलास में सुख-शांति को खोजना मात्र मृगमरीचिका है। वहां सुख कहां, मात्र सुखाभास है, जो कि व्यक्ति
को भ्रांत बनाये रखता है। (२२) ० सहिष्णुता और सह-अस्तित्व अहिंसा के दो मुख्य पहलू हैं । (२४) • शांति और सुख धन में नहीं, संयम, सादगी और सात्विक वृत्तियों में है। धन की भूमिका अधिक-से-अधिक भोग-उपभोग के साधन सामग्री
जुटाने तक है । (२६,२७) ० मैं नहीं समझता, नारी अपने को अबला और कमजोर क्यों मानती
है ? क्यों ऐसा सोचती है कि पुरुष ने उसके विकास को अवरुद्ध कर रखा है ? (२८) ० स्वयं जागृत होकर ही व्यक्ति दूसरों को जागृति का संदेश दे सकता
है । (२९) ० सुधार की बात चाहे जहां-कहीं से उठे, जिस-किसी स्तर पर उठे,
उसका स्वागत है, तथापि मैं कहूंगा कि आप औरों के सुधार की
बातों को एक बार गौण करें, पहले अपना सुधार करें। (३०) ० समाज-सुधार और राष्ट्र-सुधार के लिए व्यक्ति-व्यक्ति को सुधरना
जरूरी है। (३१) • शराब मनुष्य के विवेक को कुंद बना देती है। (३२) ० ईमानदारी और सत्याचरण मानव-जीवन की शोभा है । (३२) • शराब भी कोई पीने की चीज है ? उसको पीने से इन्सान अपनी
गुणात्मकता को खोकर हैवान बन जाता है, अपनी सुध-बुध तक गंवा बैठता है । (३४) ० मार्ग को स्वीकार करने में कैसा भय ? कैसा संकोच ? बस, थोड़े से
साहस की अपेक्षा है। (३५) ० वास्तव में बड़ा वही है, जिसने आत्म-शुद्धि के मार्ग पर चरणन्यास
किया है, संयम के साथ अपने जीवन को जोड़ा है । (३६) ० संयम और त्याग की साधना ही धर्म व अध्यात्म की सच्ची आराधना
प्रेरक वचन
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