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सन्तों का सच्चा स्वागत
नगर - प्रवेश के प्रसंग पर संतों का अभिनन्दन किया गया । यह भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही है । पर मैं शाब्दिक अभिनन्दन को बहुत महत्त्व की दृष्टि से नहीं देखता । यद्यपि यह सर्वथा निरर्थक भी नहीं है । इसके पीछे आपकी संतों के प्रति श्रद्धा और भक्ति काम कर रही है । पर सन्तों का सच्चा अभिनन्दन तभी हो सकता है, जब आप अपने जीवन में सात्विक वृत्तियों को संजोकर, आत्म-शुद्धि के पथ पर सतत अग्रसर होने के लिए संकल्पबद्ध हों ।
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धर्म ही समाधान है
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आपमें से कौन नहीं जानता कि आज हिंसा दुर्निवार रूप में आगे बढ़ती हुई जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करती जा रही है। इसकी सबसे बड़ी दुष्परिणति यह हुई है कि मानवता डगमगा उठी है सर्वत्र निराशा, खिन्नता, बेचैनी की काली रेखाएं दिखाई दे रही हैं । ऐसी स्थिति में मैं आश्वस्ति के स्वर में कहना चाहता हूं कि निराशा, खिन्नता और बेचैनी की अपेक्षा नहीं है । अपेक्षा है, हम धर्म की शरण स्वीकार करें । धर्म में वह शक्ति है, जो हिंसाजन्य सभी समस्याओं का निरसन कर सकती है, वातावरण को स्वस्थ बना सकती है ।
धर्म का स्वरूप
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परन्तु धर्म से मेरा तात्पर्य उस तथाकथित धर्म से नहीं है, जो केवल बाह्याचार के रूप में पाला जाता है, रूढ़ि और परंपरा की जड़ता में निगड़ित होकर मानव समाज के विकास में अवरोध पैदा करता है, मात्र ग्रन्थों, पंथों और धर्मस्थानों की शोभा बढाता है, जीवन और जीवन-व्यवहार को छूता तक नहीं। मैं तो उस पवित्र धर्म का पुजारी हूं, जो अहिंसा की सुदृढ़ भित्ति पर खड़ा है, जो जन-जन के लिए सात्विक वृत्ति और सदाचरण की प्रेरणा बनता है, आत्म-विशुद्धि जिसकी चरम निष्पत्ति है । ऐसा धर्म ही संसार को
सन्तों का सच्चा स्वागत
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