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संयम की प्रतिष्ठा हो
अशांति क्यों ?
मैं बड़ी तीव्रता से अनुभव कर रहा हूं कि आज मानव का जीवन कुछ उखड़ा - उखड़ा-सा, असंतुलित-सा और खोया-खोया-सा है। परिग्रह, अनैतिकता और अविश्वास से आक्रांत हो, वह अपने-आप को भूल-सा गया है। उसकी ही यह परिणति या दुष्परिणति है कि वह क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक, क्या राष्ट्रीय और क्या अन्तर्राष्ट्रीय किसी भी स्तर पर शांति नहीं पा रहा है । जीवन के हर स्तर पर अशांति ही अशांति है। अनेक राष्ट्रों में युद्ध का खतरा मंडरा रहा है । कैसी विडम्बना है कि जनता लड़ना नहीं चाहती, युद्ध से दूर रहना चाहती है, पर कुछेक व्यक्तियों की महत्वाकांक्षा या पागलपन युद्ध की आशंका / संभावना को जन्म दे देता है । आप पूछ सकते हैं, यह सब क्यों है ? मेरी दृष्टि में इसका मूलभूत कारण है - जीवन में संयम का अभाव | राजनीति संयम से अनुशासित नहीं है, इसलिए वह उच्छृंखल हो रही है । उसी का यह दुष्परिणाम है कि इस क्षेत्र में शीर्षस्थ स्थान पर बैठे कुछ लोग शांति को दफना कर युद्ध थोप देते | हा ! इतना बड़ा पाप करते उनकी आत्मा तनिक भी नहीं हिचकिचाती । यदि इस स्थिति से उबरना है तो क्या राजनीति, क्या समाजनीति हर क्षेत्र में संयम की प्रतिष्ठा करनी होगी । व्यक्ति-व्यक्ति को संयम के तत्व को आत्मसात् करना होगा ।
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अणुव्रत का अभिप्रेत
संयम को आत्मसात् करने के लिय परिग्रह, अनैतिकता और अविश्वास से 'छुटकारा पाना होगा । परिग्रह भोग- लिप्सा एवं भोगवृत्ति से पैदा होता है । अनैतिकता का हेतु बड़प्पन का भाव और मिथ्याचरण है । स्वार्थ का अतिरेक अविश्वास को उत्पन्न करता | ये सब बहिर्मुखी जीवन के उपकरण हैं । इनसे उपरत होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । अन्यथा शांति प्राप्ति की बात आकाश से फूल तोड़ने जैसी कल्पना बनकर रह जाएगी । अणुव्रत आन्दोलन, जिसकी विस्तृत चर्चा आपने सुनी, व्यक्ति व्यक्ति के जीवन
संयम की प्रतिष्ठा हो
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