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अन्तर्-चक्षुओं का उद्घाटन हो
नेत्रहीनों का कैसा जीवन ?
आज मैं विश्वप्रसिद्ध नेत्र-चिकित्सालय में आया हूं। मुझे बताया गया कि सेवा, व्यवस्था, चिकित्सकों आदि की दृष्टि से यह एशिया का सबसे बड़ा चिकित्सालय है । आप जानते हैं, आंख शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसके अभाव में व्यक्ति का जीवन कितना दुःखमय बन जाता है, यह किसी से छपी हई बात नहीं है । आप ही बताएं, नेत्रहीनों का कैसा जीवन ? उनके लिए तो जीवन में अंधेरा-ही-अंधेरा है । दिन और रात दोनों एक सरीखे हैं। अन्तर-चक्षु का महत्व |
परन्तु एक बात बहुत ध्यान देने की है। आज आदमी अन्तर्-चक्षुओं अथवा ज्ञान-चक्षुओं की दृष्टि से भी अन्धा बनता जा रहा है। यह बाह्य नेत्रहीनता से भी अधिक गंभीर स्थिति है। यह आंतरिक अंधेपन का ही परिणाम है कि मनुष्य को बुरे-से-बुरा काम भी अच्छा लगता हैं । निकृष्टसे-निकृष्ट कार्य भी श्रेष्ठ लगता है। उसीकी यह दुष्परिणति है कि आज वह शोषण, अन्याय, विश्वासघात, मिथ्याचार, हत्या जैसे अमानवीय कृत्यों में फंसता हुआ जरा भी संकोच नहीं करता । दंभचर्या एवं दूषित वृत्तियों से उसका जीवन जर्जरित हो रहा है । इसलिए आज की सबसे बड़ी अपेक्षा यह है कि जन-जन के अन्तर्-चक्षु उद्घाटित करने का सघन प्रयत्न किया जाए। 'चक्खुदयाणं' होते हैं आप्तपुरुष
हमारे यहां प्राचीन ग्रन्थों में आप्तपुरुषों के लिए 'चक्खुदयाणं' विशेषण का प्रयोग हुआ है। 'चक्खुदयाणं' का हिन्दी रूप होगा-चक्षुप्रद । यानी आन्तरिक आंख देनेवाला। इसी क्रम में गुरु को नेत्रोन्मीलक कहा गया है। ज्ञान रूपी अंजन की शलाका के द्वारा वे जन-जन के नेत्रों का उन्मीलिन करते हैं। यहां भी आंतरिक नेत्रों के उन्मीलन की बात है। इससे आप स्पष्ट अनुमान कर सकते हैं कि भारतीय चितन में आंतरिक चक्षुओं को कितना महत्व दिया गया है। बहुत सच तो यह है कि अन्तर्-चक्षुओं के आधार पर ही मनुष्य सही अर्थ में मनुष्य बनता है। आन्तरिक अंधेपन के
अन्तर्-चक्षुओं का उद्घाटन हो
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