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________________ ७८ समस्या को देखना सीखें के स्तर पर कभी सुलझा नहीं सकता । मत और अधिकार पाने के लिए जातियों का जो समीकरण होता है, वह मानव की एकता को तोड़ सकता है, जोड़ नहीं सकता । धर्मशास्त्रों के आधार पर मानवीय एकता की स्थापना का प्रश्न सरल नहीं है। इस जातिप्रथा की समस्या को सामाजिक स्तर पर ही सुलझाया जा सकता है । दैशिक और कालिक व्यवस्था वर्णाश्रम व्यवस्था और जाति व्यवस्था--दोनों सामाजिक हैं । इनसे धर्म और धर्मशास्त्र का कोई संबंध नहीं है। धर्म सार्वभौम नियमों से जुड़ा हुआ है । वर्णाश्रम और जाति की व्यवस्था दैशिक और कालिक है । सब देशों में वह समान नहीं होती । इस दैशिक और कालिक व्यवस्था को सार्वभौम रूप देने के कारण ही वर्तमान समाज-व्यवस्था में उलझनें पैदा हुईं । वर्तमान समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था में वर्णाश्रम व्यवस्था उपयोगी नहीं है । जाति-व्यवस्था भी सार्थक नहीं है । अब जो जाति व्यवस्था है, वह जाति का ध्वंसावशेष मात्र है । अतात्विक है जातिवाद महावीर और बुद्ध ने जातिवाद के विरोध में आवाज उठाई, उसका आधार समतावाद था । महावीर ने प्राणिमात्र में आत्मा की समानता को तात्विक बतलाया । उनकी दृष्टि में जातिवाद अतात्विक था । महावीर और बुद्ध का जातिवाद के विरोध में उठा स्वर लुप्त नहीं हुआ, उसके प्रकंपन निरंतर काम करते रहे । विचार विनष्ट नहीं होता । वह आकाशिक रिकार्ड में जमा रहता है | उसके प्रकंपन विभिन्न व्यक्तियों के मस्तिष्क को प्रकंपित करते रहते हैं । ढाई हजार वर्ष की लम्बी अवधि में अनेक संत और समाज सुधारक हुए, जिन्होंने जातिवाद का विरोध किया। यह स्वीकार करना इतिहास के प्रति अन्याय नहीं है। प्रगाढ संस्कार मनु ने समाज को व्यवस्था दी । स्मृतिग्रन्थों में सामाजिक व्यवस्था का विशद विवरण उपलब्ध है । जैन और बौद्ध साहित्य में समाज-व्यवस्था का निरूपण नहीं है ! जाति व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का ही एक अंग है । जैन आचार्यों ने समाज-व्यवस्था के परिवर्तनशील नियमों को शाश्वत नहीं माना । उनकी दृष्टि में जाति व्यवस्था भी सामयिक है, शाश्वत नहीं है | समाज की वर्तमान अपेक्षाओं पर अतीत का बोझ लादने का अर्थ कभी सुखद नहीं होता | हिन्दू समाज के अनेक आचार्यों ने जातिवाद और वर्ण व्यवस्था को तात्विक रूप में स्वीकार किया । फलस्वरूप अमुक-अमुक जातियों को निम्न और अछूत मानने की धारणा बद्धमूल हो गई । संस्कार इतना प्रगाढ बन गया कि बहुत सारे शिक्षित व्यक्ति भी इस धारणा से ग्रस्त हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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