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________________ समाज-व्यवस्था में दर्शन समाज, व्यवस्था और दर्शन तीनों जटिल और कुटिल शब्द हैं। आदि में समाज है, अन्त में दर्शन और बीच में व्यवस्था बैठी है। व्यक्ति आज भी जितना व्यक्ति है, उतना सामाजिक नहीं है । व्यवस्था स्वयं में सहज नहीं है । दर्शन परीक्षा की साक्षात् अनुभूति के लिए व्यवहत होता है । जैन आगमों की भाषा में समाज कल्पना है । व्यक्ति अकेला आता है और अकेला जाता है । अनुभूति भी अपनी अपनी होती है । एक की अनुभूति दूसरे की नहीं होती । विज्ञान भी अकेले को होता है । सत्य व्यक्ति है, समाज नहीं । उपनिषद् में कहा है- 'द्वितीयाद् वै भयम् ।' अकेला अभय था, दूसरा आया कि भय हो गया । 'मर्त्योः स मृत्युमाप्नोति, य इह नानेव पश्यति' - नानात्व को देखने वाला मृत्यु को प्राप्त होता है । वास्तविक सत्य है व्यक्ति सचाई भी यही है । समाज कल्पना- प्रसूत सत्य है, वास्तविक सत्य है व्यक्ति । आदि से आज तक समाजशास्त्रियों ने सामाजिकता की गाथाएं गायी हैं पर उनके संस्कार आज भी अपरिपक्व हैं, जितने वैयक्तिक हैं उतने सामाजिक नहीं हैं। जहां समाजवाद हो वहां भी थोड़ा-सा नियंत्रण शिथिल होते ही वैयक्तिक भाव पनप उठते हैं । व्यवस्था की दशा लगभग ऐसी है । प्रत्येक पदार्थ में अवस्था होती । जैन दर्शन की भाषा में उसे पर्याय कहते हैं । वह अचेतन में भी होती है, चेतन में भी होती है । वह बद्धजीव में भी होती है और मुक्त में भी होती है । व्यवस्था वैभाविक पर्याय है, सहज नहीं। वह करनी होती है । सापेक्षता की ओर झुकाव होता है, तब व्यवस्था आती है। समाज माना हुआ सत्य है, पर सम्मत सत्य को एकान्त असत्य नहीं कहा जा सकता । एकोहम बहु स्याम् चिन्तन का प्रवाह कालचक्र की तरह उत्सर्पण और अवसर्पण करता है । एक दिन व्यक्ति व्यक्ति था, अवस्था अवस्था थी और दर्शन दर्शन था । उपनिषद् की भाषा में‘स एको नैव रेमे' – वह अकेले में संतुष्ट नहीं हुआ । उसने सोचा- 'बहु स्याम्', वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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