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समस्या यानी सत्य की अनभिज्ञता
भी नहीं । आप भी अपने जीवन पर विचार करें, आत्म-निरीक्षण करें । अतीत का सिहावलोकन करके देखें । व्रत के प्रति दृष्टिकोण बनना चाहिए था वह नहीं बन पाया है, अणुव्रत के प्रति जो निष्ठा उत्पन्न होनी चाहिए थी वह नहीं हो रही है । क्योंकि लोगों ने सोच लिया है कि त्याग और बलिदान के बिना ही कोई सस्ता लाभ मिल जाए। पूजापाठ पंडितजी कर दें और लाभ सेठजी को मिल जाए। आज तो विज्ञान के युग में व्यक्ति खाने और पचाने से भी बचना चाहता है ।
हमें अपनी अनुभूति तीव्र बनानी चाहिए अन्यथा संयम के प्रति आकर्षण नहीं होगा । जब तक संयम के प्रति आकर्षण नहीं होगा तब तक दूसरी ओर आकर्षण रहेगा । सिनेमा देखने का उपदेश नहीं दिया जाता, फिर भी लोग उधर भागते हैं । रोटी खाने का उपदेश किसी को नहीं दिया जाता, फिर भी प्रत्येक मनुष्य खाता है क्योंकि उसकी प्रत्यक्ष तीव्र अनुभूति होती है । इसी प्रकार धर्म, संयम और व्रत की तीव्र अनुभूति हो जाए तो उपदेश की जरूरत नहीं ।
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विकल्प और लाभानुभूति
विकल्प और लाभानुभूति दो ऐसी बातें हैं जिनसे जनता आकृष्ट होती है । धर्म एवं संयम से क्या लाभ होता है, यह अनुभूति करा दी जाए एवं असंयम के विपरीत संयम का विकल्प दिया जाए तो सहज ही आकर्षण बढ़ेगा । आजकल ध्यान का अभ्यास लाभ के साथ जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि ध्यान से व्यापार में ज्यादा सफलता मिलती है और फिर व्यापारी वर्ग ध्यान की ओर मुड़ता है; क्योंकि उसमें उसे लाभ मिलने की सम्भावना है | संयम के साथ भी लाभ जुड़ा है। सच्चा, प्रामाणिक एवं ईमानदार रहकर काम करने वाले को अनेक प्रकार का लाभ होता है किन्तु इसकी तीव्र अनुभूति करानी और करनी होगी । इसके लिए जीवन के आकर्षण को बदलें । अनुभूति की तीव्रता होगी, संयम का आकर्षण होगा तो फिर उपदेश की जरूरत ही नहीं रहेगी ।
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