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जीवन और दर्शन.
हैं । यदि जीवन उद्देश्यपूर्वक होता है तो उसमें गति आती है, बिना उद्देश्य का जीवन लड़खड़ाता रहता है । मनुष्य खा लेता है परन्तु कब खाना चाहिए, क्यों खाना चाहिए, यह नहीं जानता । सांस लेता है परन्तु कैसे लेना चाहिए, यह नहीं जानता । कोई मनुष्य धर्म को माने या नहीं परन्तु अपने अस्तित्व पर तो विचार करना ही चाहिए । एक समझदार व्यक्ति ने कहा--आत्मा पर मेरा विश्वास नहीं । यह भावुकता है, और कुछ नहीं । वास्तव में चंचलता के द्वारा कुछ नहीं हो सकता। जब तक हमारा मन स्थिर नहीं होता तब तक हम कुछ नहीं समझ सकते । हमारा निवृत्ति-धर्म पलायनवाद नहीं । चंचलता में फंसकर लोग सत्य से दूर हो जाते हैं। सत्य के निकट हो सकें, इसी का नाम निवृत्ति है । दृष्टिकोण स्पष्ट बने
लोग दर्शन को भूलभुलैया मानकर चलते हैं परन्तु ऐसी बात नहीं है। आज दार्शनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। प्रत्येक काम में दर्शन की आवश्यकता है । जिस प्रकार एक लंगड़ा आदमी लाठी के सहारे चलता है उसी प्रकार यदि हमारे पास दर्शन का अलम्बन हो तो हम सत्य तक अवश्य पहुंच सकते हैं । १. आत्मा है, २. वह अमर है, अपना किया हुआ फल अपने आप भुगतना पड़ेगा - चाहे इहलोक में, चाहे परलोक में; जिसमें इन तीनों तथ्यों के प्रति अटूट विश्वास है, वह मनुष्य बुराइयों से घबराएगा ।
एक आदमी गाली देता है। दूसरी ओर सामने वाला देखता है। ऐसा क्यों ? उसे भी क्रोध आना चाहिए । उत्तर मिलता है-पीटता तो नहीं । वास्तव में उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण है । जीवन के प्रति मनुष्य का स्थिर और निश्चित दृष्टिकोण होना चाहिए । धार्मिक के लिए तो और भी आवश्यक है । जीवन दर्शन के प्रति और दर्शन जीवन के प्रति सजग होना चाहिए हमें सजगता के साथ समझने तथा देखने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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