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________________ १४४ बहिरात्मा तु सर्वत्र शरीरमनुवर्तते । अन्तरात्मा शरीरं च पुष्णात्यात्मानमीक्षते || बहिरात्मा सर्वत्र शरीर का अनुवर्तन करता है । अन्तरात्मा शरीर को पुष्ट करता है किन्तु उसकी दृष्टि आत्मा की ओर लगी रहती है । समस्या को देखना सीखें शरीरलक्षी : आत्मलक्षी -- बहिरात्मा का चिंतन होता है- • शरीर और इन्द्रियां स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे । उसके सारे कार्य इसी धारणा के आधार पर संपादित होते हैं । अन्तरात्मा भी शरीर का सम्यग् भरण-पोषण करता है किन्तु उसकी दृष्टि आत्मा पर केन्द्रित रहती है। एक शब्द में कहा जाए तो मात्र शरीरदर्शी बहिरात्मा हैं और आत्मदर्शी अन्तरात्मा है । बहिरात्मा से अन्तरात्मा 1 बनने का अर्थ है- शरीरलक्षी से आत्मलक्षी बन जाना। यह दृष्टिकोण का अन्तर व्यक्ति को बाहर से भीतर की ओर ले आता है। उसका दृष्टिकोण बदलता है और यही बदलाव का मुख्य घटक है । दृष्टिकोण बदला कि आदमी बदला । जब यह दृष्टि स्पष्ट होती है--- आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है तब एक नई धारणा बनती है, व्यक्ति का चिंतन बदलता है, आचार और व्यवहार बदलता है। एक अवधारणा व्यक्ति को सुखी बना देती है और दूसरी अवधारणा उसे दुःखी बना देती है । दुःख का कारण है— मूलं संसारदुःखस्य देहे एवात्मधीः समस्त दुःखों का मूल है शरीर को आत्मा मान लेना । यदि यह दृटिकोण बदले, आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है, यह सचाई समझ में आए, व्यक्ति अपनी दृष्टि को इन्द्रियों से हटाकर अपने भीतर टिकाए तो सारी स्थितियां बदल जाए, चिन्तन और व्यवहार बदल जाए । अन्तरात्मा का दृष्टिकोण अन्तरात्मा का एक लक्षण है— आत्मा को शरीर से भिन्न मानना । उसका दूसरा लक्षण है- आसक्ति का कम होना । जैसे ही व्यक्ति अन्तरात्मा बनता है, आसक्ति में अन्तर आना शुरू हो जाता है, अनासक्ति का उदय होता चला जाता है । भरत चक्रवर्ती अन्तरात्मा थे । उन्होंने पूरा राज्य किया, सारे भोग भोगे और वे आदर्शगृह में बैठे-बैठे केवली बन गए । यह है अन्तरात्मा का अनासक्त भाव । अन्तरात्मा में अनासक्ति का क्रमिक विकास होता चला जाता है, अनासक्ति बढ़ती चली जाती है, धन के प्रति लालसा कम होती चली जाती है । उसके लिए धन मात्र साधन होता है, साध्य नहीं होता । अन्तरात्मा का दृष्टिकोण पदार्थ प्रतिबद्ध नहीं रहता । आचार्य भिक्षु ने लिखाधाय बच्चे को खलाती है, पिलाती है, उसका लालन-पालन करती है किन्तु वह यह जानती है— यह बच्चा मेरा नहीं है । वैसे ही सम्यग् दृष्टि व्यक्ति अपने कुटुम्ब की प्रतिपालना करता है किन्तु उसके भीतर में लगाव नहीं होता। वह यह जानता है— कुटुम्ब मेरा नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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