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________________ महावीर की वाणी में विश्वधर्म के बीज भगवान् महावीर का जीवन साधना का जीवन था । उन्हें दीर्घतपस्वी कहा जाता है । भगवान् ने लम्बे समय तक तपस्या की थी। अपनी तपस्या के द्वारा उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया था । जो व्यक्ति सत्य को नहीं प्राप्त करता, उस व्यक्ति के विषय में हमारी कोई श्रद्धा नहीं हो सकती । कम-से-कम एक सत्य - जिज्ञासु के मन में उसके प्रति बहुत आदर भाव नहीं हो सकता । भगवान् ने सत्य को सबसे अधिक महत्त्व दिया था और सत्य ही उनके लिए परम तत्त्व था । सत्य की जिज्ञासा उनमें प्रबल प्रज्वलित थी इसलिए महावीर और सत्य- ये दोनों पर्यायवाची जैसे शब्द बन गए। महावीर यानी सत्य और सत्य यानी महावीर । उनकी महावीरता सत्य में से प्रकट हुई थी । यदि महावीर में सत्य का आग्रह नहीं होता तो वे वीर होते किन्तु उनका वीरत्व और पराक्रम दूसरों के संहार में खप जाता । महावीर का सारा पराक्रम, शक्ति और विक्रम सत्य की शोध में खपा क्योंकि वे सत्यनिष्ठ थे । इसलिए उन्होंने कहा – “सच्चमि धिरं कुव्वहा” – पुरुष ! तू सत्य में धैर्य कर । यदि सत्य को पा लिया तो तूने सब कुछ पा लिया । यदि सत्य को नहीं पाया तो तूने कुछ भी नहीं पाया । सत्य शोध की पद्धति सत्य की शोध के लिए उन्होंने एक पद्धति का अनुसन्धान किया, जिसका नाम है— अनेकान्तवाद या स्याद्वाद । भारतीय दर्शन के प्रांगण में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में अनेक आचार्य हुए हैं । किन्तु सत्य के सन्धान की पद्धति का सर्वांगीण निरूपण जो भगवान् महावीर ने किया, वह सर्वत्र समादरणीय है । भगवान् महावीर के निरूपण का सर्वाधिक मूल्य इसीलिए है कि उन्होंने कहा - 'सत्य को कहीं सीमित मत करो। सम्प्रदाय, जाति और वर्ग में सत्य को बांधो मत, और उसे एक दृष्टि से मत देखो। जब तुम एक दृष्टि से सत्य को देखोगे तो तुम्हारा वह सत्य असत्य बन जाएगा । जब तुम सत्य को अनेक दृष्टियों से देखोगे तो तुम्हारा असत्य भी सत्य बन जाएगा ।' असत्य को सत्य बनाने वाले लोग दुनिया में बहुत कम होते हैं और सत्य को असत्य बनाने वाले लोग दुनिया में बहुत होते हैं । महावीर ने जो पद्धति हमारे सामने पुरस्कृत की, उसके द्वारा असत्य को भी हम सत्य बना सकते हैं; बशर्ते कि हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो और हम वस्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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