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किसने कहा मन चंचल है
की विभिन्न मुद्राएं ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण में सहायक बनती हैं । सामान्य आदमी यह नहीं सोच सकता कि पालथी मारकर बैठने से तथा पद्मासन या उकड़े आसन में बैठने से क्या अन्तर आता है । बहुत अन्तर आता है। ये सारे आसन विशिष्ट उद्देश्य से ही निर्णीत किए गए हैं । इनसे ऊर्जा का प्रवाह ऊपर की ओर जाने लगती है । उकडूं आसन से नीचे के स्नायुओं पर दबाव पड़ता है | गोदोहिका आसन से पीछे की ओर दबाव पड़ता है । ऊर्जा ऊपर जाने लगती है ।
महावीर से पूछा --- "भंते ! ब्रह्मचर्य की साधना के लिए कुछ विशेष जानना चाहता हूं ।'
महावीर ने कहा - "उड्ढं ठाणं ठाएज्जा — खड़े-खड़े कायोत्सगं करो ।"
खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करने से ऊर्जा ऊपर की ओर जाती है, रक्त नीचे की ओर जाता है । सर्वांगासन, शीर्षासन, वृक्षासन, पद्मासन --- इन सबसे ऊर्जा ऊपर की ओर जाती है। ध्यान के लिए जितने आसनों का विधान किया गया, वे सब ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने के उपक्रम हैं । इनसे ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा, चित्त की ऊर्ध्वयात्रा होती है । इससे रूपान्तरण प्रारंभ हो जाता है, एक विस्फोट होता है । इस विस्फोट के बाद ही चेतना ऊपर की ओर बहने लगती है ।
इन तीन अधर्म लेश्याओं और तीन धर्म लेश्याओं के बीच पहले एक ऐसी दीवार खिची रहती है कि सामान्य आदमी उसे तोड़ नहीं सकता । किन्तु जब साधक प्रबुद्ध चेतना वाला हो जाता है, ऊर्जा के महत्त्व को समझ लेता है, ऊर्जा का संचय कर लेता है और ऊर्जा के द्वारा कभी विस्फोट करता है तब वह दीवार टूटती है और साधक ऊपर की ओर उठने लगता है | वहां तीन प्रशस्त लेश्याओं - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का क्षेत्र आता है । एक ज्योतिर्मय प्रकाश शुरू होता है ।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में दो महत्त्वपूर्ण वाक्य हैं—
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हृदय चेतनास्थानम् — हृदय चेतना का स्थान है ।
• तत्परमौजसः स्थानम् - चेतना के बाद ओज का स्थान है ।
ये दोनों चेतना के परम स्थान हैं। यहां से ऊर्ध्वयात्रा शुरू होती है । लेश्या धर्म की बन जाती है । तेजोलेश्या ज्योतिर्मय पुरुष, चैतन्य पुरुष की यात्रा है । उस समय आर्त्त - रौद्र ध्यान समाप्त हो जाते हैं । धर्म ध्यान का प्रारम्भ
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