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ऊर्जा का विकास : तप उचित परिपाक होगा तो मल आंतों में नहीं चिपकेगा। आंतों में मल नहीं चिपकेगा तो सड़ांध पैदा नहीं होगी। सड़ांध के बिना अपान दूषित नहीं होगा। अपान दूषित नहीं होगा तो मन की स्वच्छता कभी नष्ट नहीं होगी। अपान दूषित नहीं होगा तो व्याकुलता नहीं होगी, बेचैनी नहीं होगी, बुरे भाव नहीं आएंगे। बुरे भाव नहीं आएंगे तो हिंसा का भाव फिर कैसे आएगा ? यह चबाने से होने वाली निष्पत्ति है ।
___ आहार का संयम तपस्या है । ऊनोदरी, रस-परित्याग-ये तप के प्रकार हैं। ये हमारे युद्ध के साधन हैं। यदि साधन-सामग्री पर्याप्त और दृढ़ होती है तो आक्रमणकारियों से सहजतया निपटा जा सकता है। यदि कोई साधक इन हथियारों से सज्जित होकर नहीं बढ़ता, वह अपनी साधना से फिसल जाता है, च्युत हो जाता है।
ज्ञाता-द्रष्टाभाव तक पहुंचने के लिए, अस्तित्व तक पहुंचने के लिए बहुत सज्जा की आवश्यकता होती है ।
__उपवास व्यर्थ नहीं है, ऊनोदरी व्यर्थ नहीं है, रस-परित्याग व्यर्थ नहीं है । भोजन का विवेक साधना का बहुत बड़ा अंग है। यह भी काम्य नहीं है कि भोजन सर्वथा छोड़ दिया जाए। यह भी काम्य नहीं है कि भोजन के प्रति लापरवाही बरती जाए। हमें दोनों के मध्य से गुजरना है । बिल्कुल कम भोजन करने से शारीरिक शक्ति का ह्रास होता है। अधिक भोजन करने से आलस्य बढ़ता है। शारीरिक शक्ति कम न हो तथा आलस्य भी न बढ़े इसके लिए भोजन का संतुलन आवश्यक होता है। हमें साधनाकाल में भी शरीर से काम लेना है। यदि उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है तो साधना में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। जिस शरीर से काम लेना है, यदि उस पर भोजन का अधिक भार डाल देते हैं तो भी वह साथ नहीं देता। इस बेचारे शरीर पर हम उतना ही भार डालें, जिससे यह अपना काम सहजता से कर सके।
साधना में अनाहार की नहीं, आहार-संयम की बात मुख्य है । ऊनोदरी, रस-परित्याग--ये आहार-संयम के अंग हैं। साधना के साथ इनका गहरा संबंध है। इनकी विस्तृत चर्चा आगे करेंगे।
एक साधक मेरे पास आया। वह अनेक दिनों से प्रेक्षा-ध्यान में संलग्न था। उसने कहा-'आज पहली बार मुझे अपने अस्तित्व की झलक मिली, आत्मा की अनुभूति हुई। आत्मा को देखने से बढ़कर कोई दूसरा
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