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________________ अभ्यास करने वाला चेतना के विभिन्न स्तरों को जाने बिना अन्तश्चेतना की शक्तियों को जागत नहीं कर सकता। ध्यान का प्रयोजन है-आन्तरिक चेतना में विद्यमान शक्तियों का विकास और उनका उपयोग ।। कर्मशास्त्र का अध्ययन एक दार्शनिक और तत्त्ववेत्ता के लिए जितना जरूरी है, उतना ही ध्यान-साधक के लिए जरूरी है। नाड़ी-संस्थान में उठने वाली कर्म-विपाक की विभिन्न तरंगों को जाने बिना उन्हें शान्त नहीं किया जा सकता। प्रेक्षाध्यान से चित्त की जागरूकता बढ़ती है। जागरूक साधक नाड़ी-संस्थान में उठने वाली उत्तेजना या वासना की प्रत्येक तरंग का अनुभव कर सकता है और दर्शन के द्वारा उसे निष्क्रिय बना सकता है। हम चिन्तन की शक्ति से जितने परिचित हैं, उतने ही दर्शन की शक्ति से अपरिचित हैं । चिन्तन से ज्ञान-तंतुओं में थकान आती है और दर्शन से वे शक्तिशाली बनते हैं। उनकी सक्रियता बढ़ती है । दर्शन चेतना ही सहज प्रवृत्ति है। चित्त शरीर के जिस भाग में आता है, उस भाग में प्राण की धारा प्रवाहित होती है । जहां प्राण का प्रवाह प्रचुर मात्रा में होता है, वहां सुप्त चैतन्य केन्द्र जागृत हो जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में जागरण की प्रक्रिया के कुछ सूत्र चचित हैं। इन ध्यान-सूत्रों की चर्चा की परिसमाप्ति पर आचार्यश्री तुलसी की उपसंहारात्मक टिप्पणियां भी होती रही हैं। वे एक स्वतन्त्र पुस्तक में पढ़ने को मिलेंगी। आचार्यश्री ने मेरी ध्यान-चर्चा को बहुत सजीव बनाया है। उनकी उपस्थिति और प्राणवत्ता ने मुझे बहुत प्रेरित किया है, लाभान्वित किया है। प्रस्तुत पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने के श्रम-साध्य कार्य में तथा उसके संपादन में मुनि दुलहराजजी ने उत्साहपूर्ण कार्य किया है। इसके लिए उन्हें साधुवाद देता हूं। पाठक वर्ग ने संप्रति प्रकाशित होने वाले ध्यान-संबंधी ग्रन्थों के प्रति जो भावना प्रदर्शित की है, जिस अभिरुचि से उन्हें पढ़ा है और उसके आधार पर प्रयोग का प्रयत्न किया है, उससे इस क्षेत्र में उज्ज्वल संभावनाएं जन्म ले रही हैं। मैं मंगल भावना करता हूं कि जन-जन में अध्यात्म की भावना जागे । प्रत्येक व्यक्ति अपने अस्तित्व को जाने, पहचाने । मैं फिर एक बार आचार्यवर के प्रति श्रद्धा-प्रणत प्रणाम करता हूं और कामना करता हूं कि उनके पथ-दर्शन से समूची मानव जाति का पथ आलोकित बने । अणुव्रत विहार, नई दिल्ली युवाचार्य महाप्रज्ञ १ मई, १९७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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