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" चेतना की क्रीडाभूमि : अप्रमाद
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द्रव्य की अपनी शक्ति होती है । उसको जानने वाला द्रव्यों से लाभान्वित हो सकता है । प्राचीनकाल के साधक इस बात से परिचित थे कि साधना में कौन-कौन-से द्रव्य सहायक होते । ध्यान की स्थिरता, आसन की स्थिरता, मन की स्थिरता में अमुक-अमुक सहयोगी बनते हैं । - आज उन द्रव्यों की जानकारी कम हो गई है, इसलिए साधक द्रव्यों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं ।
दो प्रकार का बल है । एक है शरीर का बल और दूसरा है आत्मा - का बल, अध्यात्म का बल । शरीर के बल से हम परिचित हैं, किन्तु अध्यात्म के बल से परिचित नहीं हैं । अध्यात्म का बल शरीर के बल से बहुत अधिक है । हम इन्द्रियों के बल से परिचित हैं । आंखों में शक्ति है. इसलिए हम देखते हैं । कानों में शक्ति है, इसलिए हम सुनते हैं । स्पर्श में शक्ति है, इसलिए हम सर्दी-गर्मी का अनुभव करते हैं । क्या इन इन्द्रियों में इतनी ही शक्ति है, जितनी शक्ति से हम परिचित हैं ? नहीं, इनकी शक्ति और अधिक है । सामने पड़ी वस्तु को देख लेना मात्र ही आंख की शक्ति नहीं है । उनकी - शक्ति बहुत आगे तक काम करती है । साधना करने वाला व्यक्ति उस शक्ति को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है |
इन्द्रिय शक्ति के दो रूप हैं - संभव शक्ति और संभाव्य शक्ति | आंख - से हम देखते हैं । किन्तु उसकी भी एक सीमा है। जहां तक कोई अवरोध नहीं होता, उचित दूरी पर पदार्थ होता है, वहां तक हम आंख से देख सकते हैं। यह है आंख की संभव शक्ति । हम इसकी संभाव्य शक्ति से अपरिचित हैं। आंख की शक्ति का विकास किया जाए तो हम बहुत-बहुत दूरी पर स्थित पदार्थों को भी साक्षात् देख सकते हैं । इससे दूरदर्शन संभव हो सकता है । व्यवधान होने पर भी देखा जा सकता है । स्थूल को भी देखा जा सकता है और सूक्ष्म को भी देखा जा सकता है । यह है - संभाव्य शक्ति |
पांचों इंद्रियों की सीमित शक्ति होती है । उसे संभव शक्ति कहा जाता है । उनकी असीम शक्ति भी है । इसे संभाव्य शक्ति कहते हैं । उसका विकास किया जा सकता है । संभव शक्ति हमें प्राप्त है, हम उसका उपयोग करते हैं । संभाव्य शक्ति की सीमा बहुत आगे है । कुछ विशिष्ट व्यक्ति होते हैं जिनकी संभव शक्ति दूसरों की संभाव्य शक्ति जैसी विशिष्ट होती है । इनमें तीर्थंकर, अर्हत्, केवली आदि आते हैं। जो अपने कद को सूक्ष्म बना डालता है, जो अपना मानसिक विकास कर लेता है, वह 'मनोकामी हो
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