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किसने कहा मन चंचल है
उत्साह न होग अनुत्साह है ।
साधना में उत्साह कम व्यक्तियों में होता है। उन पर प्रमाद छाया रहता है। हम थोड़ा मुड़ें और अपनी संपदा से परिचित होने का उपक्रम करें । हम प्रमाद को हटाने का प्रयत्न करें। इस प्रयत्न में सबसे बड़ा सहयोग मिलेगा चेतना का। सबसे पहले हम यह बोध प्राप्त करें कि हमारे में अनन्त शक्ति है । यह बोध हो जाने पर ही उसके प्रयोग की बात सोची जा सकती है । पहले हम अपनी शक्तियों से परिचित हों। हम जान लें कि हमारे भीतर शक्तियों का अजस्र स्रोत बह रहा है । इससे परिचित होते ही फिर उपयोग की सुविधा हो जाती है ।
पूर्व चौदह थे। ये ज्ञान के आकर-ग्रंथ थे। इनमें एक था-वीर्यप्रवाद । इसका वर्ण्य-विषय था-शक्ति के स्रोत और प्रयोग। इसमें केवल शक्ति का ही प्रतिपादन था, अन्य विषयों का नहीं। बहुत अद्भुत ग्रन्थ था। आज वह उपलब्ध नहीं है। इसमें जीव और अजीव, प्राणी और अप्राणी, चेतन और अचेतन-सभी पदार्थों की शक्तियों का वर्णन था। प्राणी की तरह अप्राणी में भी अनन्त शक्ति होती है। अचेतन पदार्थों की विभिन्न शक्तियों का उस ग्रन्थ में वर्णन था। द्रव्य की शक्ति, क्षेत्र की शक्ति और काल की शक्ति अनन्त होती है। अजीव की बहुत बड़ी-बड़ी शक्तियां हैं। इन शक्तियों का सहयोग जीव को भी मिलता है।
अजीव की शक्तियों का विस्तृत वर्णन नहीं करेंगे, किन्तु प्रसंगवश कुछ चर्चा प्रस्तुत करता हूं। क्षेत्र की शक्ति अद्भुत होती है। एक क्षेत्र में जाने से मन प्रसन्न होता है और एक क्षेत्र में जाने से मन विषण्ण होता है। एक क्षेत्र की तरंगें इतनी पवित्र और शांत होती हैं कि मन शांत हो जाता है, उद्विग्नता मिट जाती है। एक क्षेत्र की तरंगें इतनी मादक होती हैं कि मन अशांत हो जाता है, उद्विग्न हो जाता है, उन्मत्त हो जाता है ।
काल की भी अपनी शक्ति होती है। एक काल में जो बात हो सकती है वह दूसरे काल में नहीं हो सकती। प्रातःकाल में किए जाने वाले ध्यान में जितनी स्थिरता होती है वह मध्याह्नकाल में नहीं होती। सर्दी में मन की जितनी स्थिरता होती है, गर्मी में उतनी नहीं होती। आयुर्वेद में काल के आधार पर औषधिसेवन का विधान भिन्न-भिन्न रूप में प्रतिपादित है। हरीतकी का प्रयोग भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार से होगा। काल की शक्ति द्रव्य की शक्ति को घटा-बढ़ा सकती है ।
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