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चेतना की क्रीडाभूमि : अप्रमाद
एक आदमी जा रहा था। रास्ते में एक राक्षस मिला। उसने कहा--"एक समस्या है। इसे पूरी करो।" आदमी ने कहा-"बताओ, समस्या क्या है ?" राक्षस ने कहा-.-"किमाश्चर्यमत: परम्"-"इससे बढ़कर और आश्चर्य ही क्या है ?"
आदमी होशियार था। उसने समस्यापूर्ति करते हुए कहा :
"अहन्यहनि भूतानि, गच्छन्ति यममन्दिरे । शेषाः जीवितुमिच्छन्ति, किमाश्चर्यमतः परम् ?"
-प्रतिदिन प्राणी यममन्दिर में जा रहे हैं, मृत्यु के मुख में जा रहे हैं । यह देखते हुए भी शेष प्राणी यही सोचते हैं कि वे तो सदा जीवित रहेंगे। इससे बढ़कर और बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है ?-यह उस आदमी की उपज थी । बहुत ही सुन्दर समाधान उसने दिया।
___ यदि मुझे इस समस्या की पूर्ति करनी हो तो मैं दूसरे ढंग से ही करूंगा। मैं कहूंगा---
"अनन्तशक्तिसंपन्नाः भिक्षां याचामहे यदि ।
दैन्यं प्रदर्शयन्तो हि, किमाश्चर्य मतः परम् ?"
-हम अनन्तशक्ति के अधिकारी और स्वामी होते हुए भी अपनी शक्तियों को नहीं जानते । प्रमाद से मूढ़ होकर उन्हें भूल जाते हैं, भूल गए हैं । उनको विस्मृत कर हम यत्र-तत्र अपनी दीनता प्रदर्शित करते हैं। हम कह देते हैं---"मैं एक घंटा एक आसन पर बैठ नहीं सकता। मैं इतनी गर्मी को सहन नहीं कर सकता। मैं ध्यान करता हूं तब सिर में दर्द होने लगता है। यह दीनता है । इसका प्रदर्शन करना सबसे बड़ा आश्चर्य है । एक ओर तो व्यक्ति अनन्त शक्तियों का स्वामी है और दूसरी ओर वह अल्प समय तक ध्यान करने में भी समर्थ नहीं है, एक आसन में बैठने में भी समर्थ नहीं है । यह सबसे बड़ा आश्चर्य है।
हम अनन्त शक्तिसंपन्न हैं, अनन्त चेतनासंपन्न हैं, विपन्न नहीं हैं। किन्तु हम अपनी इस संपदा से परिचित नहीं हैं। अपनी संपदा का हमें बोध
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