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प्रवचन ३
| संकलिका
• सन्वमओ पमत्तस्स भयं । • सव्वओ अपमत्तस्स पत्थि मयं ॥ [आयारो, ३।७५] • सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । [आयारो, ३३१] • णो णिहेज्ज वीरिय। [यारो, ५१४१]
० प्रमत्त को सब ओर से भय होता है। ० अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। • अज्ञानी सदा सोते हैं, ज्ञानी सदा जागते हैं ।
• अपनी शक्ति को मत छुपाओ । • ज्ञाता-द्रष्टा-केवल द्रष्टा बने रहें।
जागृत रहें। श्वास आ रहा है, जा रहा है । कम्पन हो रहा है। विचार उठ रहा है, विलीन हो रहा है। वासना उठ रही है, विलीन हो रही है। क्रोध-उत्तेजना उठ रही है, विलीन हो रही है। निर्विचार दशा में प्रज्ञा उपलब्ध होती है ।
करने की आदत है, इसलिए न करना या होना कठिन लगता है। - अप्रमाद
० चैतन्य का सतत उपयोग ।
• कर्म के साथ चेतना का सतत योग । • विवेक-दृष्टि स्पष्ट ।
संयम-सुख का अनुभव । ज्योति का अनुभव ।
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