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________________ -३०० किसने कहा मन चंचल है साधक को सबसे पहला परिवर्तन जो करना होता है वह है श्वास का परिवर्तन । जो इसके मूल्य को नहीं जानता, वह सचाई को नहीं पकड़ सकता। जो साधक दीर्घश्वास को केवल प्राणायाम के रूप में ही स्वीकार करता है वह अपने स्वास्थ्य तक सीमित लाभ को उठा सकता है किन्तु वह दीर्घश्वास प्रेक्षा से होने वाले आन्तरिक परिवर्तनों के लाभ को नहीं उठा सकता । हम यह स्पष्ट मानें कि दीर्घश्वास केवल प्राणायाम ही नहीं है, वह उससे आगे भी है। हम दीर्घश्वास को प्राणायाम की दृष्टि से नहीं ले रहे हैं । हम दीर्घश्वास की प्रेक्षा करते हैं। उसका मूल उपयोग है-वृत्तियों का शमन, उत्तेजनाओं का शमन और वासनाओं का शमन । इसके साथ-साथ शारीरिक और मानसिक लाभ भी होते हैं। __ साधना का दूसरा काम है-शरीर की दिशा का परिवर्तन । जब श्वास की दिशा बदलती है तब शरीर की दिशा अपने-आप बदलने लग जाती है। हम प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा शरीर की दिशा को भी बदल सकते हैं। शरीर में भी बीमारियां तब आती हैं जब शरीर के चैतन्य-कण मूच्छित हो जाते हैं। शरीर के चैतन्य-कण जब मूर्छा और सुषुप्ति की अवस्था में होते हैं तब बीमारियां आती हैं। यदि सारा चैतन्य जाग उठे, शरीर के कण-कण में रहा हुआ चैतन्य जाग उठे, मूर्छा टूट जाए, सुषुप्ति मिट जाए तब विकारों और उत्तेजनाओं को आने का अवकाश ही नहीं रहता । शरीर-प्रेक्षा के द्वारा हम शरीर की समूची क्रिया को बदल डालते हैं। ज्ञान-तन्तुओं को इतना सक्रिय और सक्षम बना डालते हैं कि जिससे वह हर स्थिति का सामना कर सकता है। जब हमारी जीवनीशक्ति पर सबसे बड़ा आघात होता है तब प्रतिरोधात्मक शक्ति कम हो जाती है। आज का आदमी तेज दवाइयां खा-खाकर अपनी जीवनीशक्ति को या प्रतिरोधात्मक शक्ति को कमजोर कर डालता है। ध्यान प्रतिरोधात्मक शक्ति को बनाए रखने का अचूक उपाय है । साधक ध्यान के द्वारा ज्ञान-तन्तुओं और शारीरिक तन्तुओं को सक्रिय बनाकर जीवनीशक्ति को बढ़ा सकता है। ध्यान का अभ्यास न चले, आदमी तेज दवाइयां लेता रहे, जीवनीशक्ति का क्षय करता चले, जीवनीशक्ति के लिए उपयोगी कीटाणुओं को नष्ट करता चले तो एक ओर से होने वाला क्षय उसे न जाने कहां नीचे ले जाकर पटकता है, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास करने वाला साधक, अपने चैतन्य केन्द्रों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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