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________________ २७२ किसने कहा मन चंचल है उपादेय कुछ भी नहीं है । वहां केवल रेचक की बात प्रधान है । हमारी पूर्णता इसलिए प्रकट नहीं होती कि हम रेचन करना नहीं जानते । हमारे संकल्प, हमारी कामनाएं और भावनाएं, हमारे मनोरथ इसीलिए अधूरे रह जाते हैं कि हम रेचन करना नहीं जानते । हम रेचन करना सीखें । सामायिक के साथ रेचन की बात आवश्यक अंग के रूप में जुड़ी हुई है । 'तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि' – यह रेचन की प्रक्रिया है । प्रत्येक साधक रेचन करना सीखें । अच्छे विचार आने पर खुश न हो और बुरे विचार आने पर निराश न हो । जो होता है उसे होने दो । जब नए लोग ध्यान का अभ्यास करते हैं तब बुरे विचार आते ही घबरा जाते हैं । वे कहते हैं - आज बहुत बुरा हुआ । मैं कहता हूं-बहुत अच्छा हुआ कि उतनी गंदगी बाहर निकल गयी । ध्यान का अर्थ है - गहराई में जाना । जब व्यक्ति गहराई में उतरता है तब एक के बाद एक परत उघड़ती है और दबे हुए सारे संस्कार उदित होने लगते हैं । यह ध्यानकाल के प्रारंभ में होता ही है । साधक इससे घबराए नहीं । दो प्रकार के ज्वर होते हैं-हाडज्वर और सामान्य ज्वर । जब ज्वर हड्डीगत हो जाता है तब लगता है कि कोई ज्वर नहीं है किन्तु वह ज्वर बहुत ही खतरनाक होता है । जिस ज्वर के लक्षण प्रत्यक्ष दीखते हैं उसकी चिकित्सा की जा सकती है । किन्तु अस्थि-ज्वर ऐसा नहीं है । वह बाहर नहीं दीखता । भीतर ही भीतर चलता है । विचारों का, संस्कारों का भी यही क्रम है । साधक के द्वारा जब उन संस्कारों को कुरेदा जाता है, उखाड़ा जाता है तब वे आक्रमण करते हैं । जो साधक ध्यान की गहराई में जाता है वह इस बात से न घबराए कि बुरे संस्कार उभर रहे हैं । बुरे विचार आ रहे हैं । यदि वह घबराकर ध्यान छोड़ देता है तो वह पथच्युत हो जाता है । यदि वह उस स्थिति को संभाल लेता है तो आगे बढ़ जाता है । यह एक ऐसा बिन्दु है जहां से व्यक्ति नीचे गढ़े में भी गिर सकता है और छलांग मारकर ऊपर शिखर पर भी पहुंच सकता है । इसलिए सामायिक की साधना करने वाला व्यक्ति समझ लेता है कि जो अतीत का ऋण या देय है, वह प्रकट होगा, सामने अवश्य ही आएगा, किन्तु मुझे घबराना नहीं है, क्योंकि मैं अपने व्यक्तित्व के नव निर्माण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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