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किसने कहा मन चंचल है
है-सिद्ध, बुद्ध और मुक्त ।
इस यात्रा-पथ का पहला ज्योतिस्तंभ है-विवेक । प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा की समूची साधना विवेक-जागरण के लिए है। जब तक विवेक जागृत नहीं होता तब तक आगे नहीं बढ़ा जा सकता। दो बातें हैं-ज्ञाता-द्रष्टाभाव और प्राणशक्ति । इन दोनों के बीच में है-सघन मूर्छा का चक्रव्यूह । इसके रहते हुए कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता। मूर्छा ने अपनी सुरक्षा के लिए चार रक्षापंक्तियां बना रखी हैं :
१. पहली रक्षापंक्ति है--आवेग, उत्तेजना । २. दूसरी रक्षापंक्ति है-प्रमाद, विस्मृति । ३. तीसरी रक्षापंक्ति है-आकांक्षा, इच्छा । ४. चौथी रक्षापंक्ति है-अविवेक ।
यदि पहले ही यह प्रयत्न हो कि हम प्रियता और अप्रियता के भाव को समाप्त कर दें, राग-द्वेष को समाप्त कर दें, और अपने आत्म-अस्तित्व तक पहुंच जाएं, शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लें तो यह दुःसाहस होगा। वहां तक हम पहुंच ही नहीं पाएंगे । हमें एक क्रम से चलना होगा। अविवेक सबसे सघन रक्षापंक्ति है। इसको तोड़े बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उसको तोड़ने के बाद शेष तीन रक्षापंक्तियां अपने-आप टूट जाती हैं, क्योंकि ये इतनी सुदृढ़ नहीं हैं जितनी कि अविवेक की रक्षापक्ति है। अविवेक की रक्षापंक्ति पर प्रहार करना दुःख पर पहला प्रहार होगा। आप प्रहार करना चाहते हैं, सभी रक्षापंक्तियों का भेदन करना चाहते हैं और उन्हें भेद कर अपने अस्तित्व तक पहुंचना चाहते हैं। किन्तु प्रश्न है कि यह कैसे किया जाए ? उसकी प्रक्रिया क्या है ? अभ्यास का क्रम क्या है ? साधना क्या है ?
इस साधना के दो प्रयोग हैं । एक है--विवेक-प्रतिमा का और दूसरा है--कायोत्सर्ग-प्रतिमा का । तीन या छह महीने तक इनका प्रयोग चले । चैतन्य के जागरण में निश्चित ही सफलता मिलेगी। विवेक प्रतिमा
कायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठे या खड़े रहें । मन को शांत करें। चिन्तन या विचार के स्तर पर नहीं किन्तु अनुभव के स्तर पर चलें। विचार के स्तर में तथा अनुभव के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर है। विचार सतही होता है। उसमें गहराई नहीं होती। एक आता है, दूसरा चला जाता है। जब
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