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अस्तित्व की खोज : सम्यग्दर्शन
अक्रिया और सिद्धि । सुनना और जानना-ये दो स्तंभ हैं हमारे यात्रा-पथ के । तीसरा है--विज्ञान । विज्ञान का अर्थ है-विवेक । यह हमारे यात्रापथ को आलोकित करता है। हमने सुना। हमने जाना। जानने के बाद विवेक पैदा हुआ, हमारी विवेक की चेतना जागत हुई। हमने यह अनुभव किया कि यह हेय है, यह उपादेय है। इसे छोड़ना है, इसे स्वीकार करना है। यह विवेक हो गया। किन्तु जब तक यह विवेक जागत नहीं होता तब तक कठिनाई समाप्त नहीं होती। जहां अंधेरा होता है वहां सब कुछ समान दिखाई देता है, सब कुछ एक मान लिया जाता है। हेय और उपादेय का भेद नहीं होता । हेय भी करते चले जाते हैं और उपादेय भी करते चले जाते हैं । तब तक हेय और उपादेय का भेद नहीं समझते तब तक प्रकाश हमें प्राप्त नहीं हो सकता। जब विवेक स्पष्ट हो जाता है तब प्रत्याख्यान की बात आती है । हेय अपने-आप छूट जाता है । हेय तब तक ही रहता है जब तक हमारा विदेक जागृत नहीं होता । जैसे ही हेय छूटता है, प्रत्याख्यान प्राप्त हो जाता है । संयम सध जाता है । संयम के सधते ही संवर प्राप्त हो जाता है । संयम हमारी साधना है और संवर उसकी निष्पत्ति है। किसी विजातीय तत्त्व का बाहर से न आना संवर है । जब संयम की साधना होती है तब बाहर से आना अपने-आप बंद हो जाता है। जब संवर सधता है तब तप की चेतना शुरू हो जाती है । एक आन्दोलन प्रारम्भ हो जाता है । जब तक बाहर से रसद पहुंच रहा था तब तक बहुत बड़ी शक्ति मिल रही थी। बाहर का सारा रसद बंद हो गया, अब जो भीतर है उसमें बड़ा आन्दोलन होने लग जाएगा । तप की प्रक्रिया एक साधना है। निर्जरा उसकी निष्पत्ति है । निर्जरा कोई साधना नहीं है, संवर कोई साधना नहीं है। ये दोनों निष्पत्तियां हैं । संयम की निष्पत्ति है संवर और तप की निष्पत्ति है निर्जरा। जब बाहर से आना बंद हो जाता है और जो भीतर है वह बाहर भागने लगता है, उसका भीतर रहना कठिन होता है, उस समय अकर्म की स्थिति प्राप्त होती है। हमारी चंचलताएं समाप्त हो जाती हैं। हमारी प्रवृत्तियां समाप्त हो जाती हैं । सहज ही स्थिरता प्राप्त होती है, अकर्म की अवस्था उपलब्ध होती है। अकर्म की स्थिति प्राप्त होने के पश्चात् सिद्धि प्राप्त होती है। तब ज्ञाता और द्रष्टाभाव स्थिर हो जाता है। जिस ज्ञाता और द्रष्टाभाव के लिए यात्रा प्रारम्भ की थी वह यात्रा संपन्न हो जाती है। यह हमारी यात्रा की मंजिल है । इसमें हमारा स्वरूप प्रकट हो जाता है। हमारा स्वरूप
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