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________________ किसने कहा मन चंचल है साधक ने कहा- - " जब मैं सोया था तब तुम जागते थे । जब तक मैं - सोता रहा, तुम मेरे में बने रहे। आज मैं जाग गया हूं। मेरी मूर्च्छा टूट गयी है । ऐसी कोई अमृत वर्षा हो रही है जिसमें मैं आकण्ठ मग्न हूं। मैं जागूंगा तब तुम नहीं रह पाओगे। मैं सोया रहता हूं तब ही तुम कुछ कर पाते हो । जागने के बाद तुम अकिञ्चत्कर हो जाते हो । मालिक सोता है तब घर में चोर घुस जाते हैं, घर में रह सकते हैं, किन्तु जब मालिक जाग जाता है तब चोर घर में नहीं रह सकते ।" जीवन में जब कोई आत्मिक उन्मेष जागता है, आध्यात्मिक घटना घटित होती है तब सारी दिशा बदल जाती है और सारी शक्ति श्रेयस् की दिशा में प्रवाहित होने लग जाती है । यह आत्मिक उन्मेष ही सामायिक है । यह जागना ही सामायिक है । सामायिक, समता, साम्य तब घटित होता है जब स्वानुभव का एक लव भी जागृत हो जाता है । जब तक स्व का अनुभव नहीं होता, आत्मा का अनुभव नहीं होता, आत्मा का उन्मेष नहीं जागता, तब तक जीवन में सामायिक घटित नहीं होता, कुछ भी श्रेयस् घटित नहीं होता । -२५४ सामायिक और चैतन्य का अनुभव — दोनों साथ में जुड़े हुए हैं । जितना - जितना चैतन्य का अनुभव उतना उतना सामायिक । ऐसे भी कहा जा सकता है - जितना जितना सामायिक, उतना उतना चैतन्य का अनुभव, स्व का अनुभव या आत्मा का अनुभव । परानुभव और स्वानुभव - ये दो विरोधी दिशाएं हैं । ये कभी मिलने वाली नहीं हैं । परानुभव भी चलता रहे और स्वानुभव भी होता रहे, यह कभी संभव नहीं है । दो समानान्तर रेखाएं कभी नहीं मिलतीं । परानुभव और स्वानुभव दो समानान्तर रेखाएं हैं । परानुभव और सामायिक साथ-साथ भले ही चलें, पर वे परस्पर कभी नहीं मिल सकते । जब आत्मा का अनुभव जागता है तब व्यक्ति कहता है - " करेमि भंते ! सामाइयं - भगवन् मैं सामायिक करता हूं।" सामायिक करने की भावना तब जागती है जब स्वानुभव का उन्मेष होता है । सामायिक के लिए यह बहुत ही जरूरी है कि उसे सान्निध्य मिले । उन्मेष और निमेष - दोनों का क्रम सतत चलता रहता । तरंगे उठती हैं । तरंगें गिरती हैं । तरंगों का उन्मेष होता है। होता है । पलकें खुलती हैं । पलकें गिरती हैं । पलकों का Jain Education International For Private & Personal Use Only तरंगों का निमेष उन्मेष होता है । www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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