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________________ शक्ति की श्रेयस् यात्रा २५३ नहीं सकता। हजार प्रयत्न करने पर या हजार परिस्थितियों के आने पर भी वह अनिष्ट, अहित या अश्रेयस् नहीं कर सकता । जो व्यक्ति अपने-आपको देखना या जानना प्रारंभ कर लेता है, उसे इतनी बड़ी सचाई उपलब्ध हो जाती है, मूर्छा के सारे वलय इस प्रकार टूट जाते हैं कि वह फिर मूर्छा के चक्रवात में नहीं फंसता । वह मूर्छा से चालित नहीं होता। आज तक वह उस बिन्दु से प्रेरित होता रहा है जिसकी आदि नहीं खोजी जा सकती है । वह उस मूर्छा के थपेड़ों से प्रताड़ित होता रहा है जिससे छूटने का प्रयत्न करने पर भी नहीं छूट पाया है। किन्तु जब स्वयं को जानने-देखने की अभीप्सा तीव्र होती है तब ऐसा बिन्दु आता है कि मूर्छा का वलय टूटने लगता है, मूच्छी की तन्द्रा समाप्त होती है और आदमी जाग जाता है । जागरण की अवस्था में कुछ विचित्र-सा घटित होता है। एक व्यक्ति में जब जागरण घटित हो गया तब उसने कहा"बन्धो ! क्रोध ! विधेहि किञ्चिदपरं स्वस्याधिवासास्पदं, भ्रातर् ! मान ! भवानपि प्रचलतु, त्वं देवि ! माये ! व्रज । हंहो ! लोभ ! सखे ! यथाभिलषित गच्छ द्रुतं वश्यतां, नीतः शान्तरसस्य सम्प्रति लसद्वाचा गरूणामहम ॥ -"भाई क्रोध ! अब तुम अपना दूसरा ठिकाना खोज लो। इस स्थान में तुम्हें अब अवकाश नहीं है।" क्रोध ने सोचा-'यह क्या ? यह कैसा पागल है ? हम अनन्त काल से साथ रह रहे हैं, आज अचानक मुझे बाहर ढकेल रहा है। यह क्या हो गया ?' साधक ने मान को सम्बोधित कर कहा--- "भाई मान ! तुम भी चले जाओ। हे देवी माया ! अब तुम्हारा यहां कोई काम नहीं है । तुम भी चली जाओ।" सबने सोचा, शायद साधक पागल हो गया है, अन्यथा वह अपने जीवन-साथियों को चले जाने के लिए क्यों कहता ? हमने कभी यह सोचा भी नहीं था कि इससे बिछुड़ना पड़ेगा। यह हमें इस प्रकार चुनौति देगा, यह हमारे समझ से परे की बात थी। इतने में साधक ने कहा - "अरे भाई लोभ ! तुम भी अपना स्थान खाली करो। यहां से जहां चाहो वहां चले जाओ।" क्रोध, मान, माया और लोभ चारों असमंजस में पड़ गए। उन्होंने कहा -"हम सदा से तुम्हारे साथ रहे हैं । एक क्षण के लिए भी हमने तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा। तुम्हारे सुख में भी हम साथ रहे और दुःख में भी हमने तुम्हारा साथ निभाया। आज तुम हमें छोड़ रहे हो, यह अन्याय है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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