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किसने कहा मन चंचल है
हो गया।
शरीर-प्रेक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। यह इतिहास उस आदि युग से जुड़ जाता है जो धर्म का प्रारंभिक युग था। प्रेक्षा-ध्यान की परंपरा नयी नहीं है। हां, वह विस्मृत कर दी गयी थी। उसका आज पुनः उद्धार हो रहा है।
दुनिया में नया कुछ भी नहीं होता। जो बहुत पुराना हो जाता है, उसी का नाम होता है नया। एक बात प्रारंभ होती है। फिर वह विस्मृत हो जाती है। अतीत का अन्तराल बढ़ जाता है । फिर जब वह सामने आता है तब लोग उसे नया कहते हैं ।
प्रेक्षा का पहला प्रयोग भरत चक्रवर्ती ने किया था, यह इतिहासप्रसिद्ध बात है । इतने युगों तक यह विस्मृत रही। आज उसकी बात फिर चालू हो रही है । यह ध्यान की सरल पद्धति है। जो साधना-पद्धिति कठिन होती है, वह कभी मान्य नहीं होती। मनुष्य की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह कभी कठोर बात को सहसा स्वीकार नहीं करती। वह सरलतम मार्ग को स्वीकार करती है । प्रेक्षा की पद्धति सरलतम मार्ग है ।
प्रेक्षा-ध्यान से समभाव फलित होता है, द्वंद्वातीत चेतना का उदय होता है। ऐसी तटस्थता, ऐसी समता, ऐसी द्वन्दातीत चेतना जहां चेतना के दोनों आयाम समाप्त हो जाते हैं और तीसरा आयाम खुल जाता है-वह है समभाव । लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि जितने द्वंद्व हैं, जो हमारे मन को विचलित करते हैं, जो हमारे मन को विकृत और रुग्ण बनाते हैं, वे सारे समाप्त हो जाते हैं।
सचाई यह है कि सारे दुःख द्वंद्व की चेतना से प्रसूत हैं । एक अपना प्रिय पुत्र है । वह व्यापार करता है, किन्तु लाभ नहीं कमा पाता। पिता के मन में ऐसी प्रतिक्रिया होती है कि पुत्र की प्रियता उस प्रतिक्रिया के नीचे दब जाती है और पिता का मन आक्रोश से भर जाता है। ऐसी कटुता पैदा हो जाती है कि जीवनभर के लिए पिता-पुत्र का संबंध-विच्छेद हो जाता है। यह कटुता क्यों ? यह प्रियता का विलोप क्यों ? यह सारा होता है द्वन्द्वचेतना के द्वारा । इसके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । यदि बेटा बहुत धन कमाकर देता है तो पिता उसे सिर पर रख लेते हैं। तीन बेटे हैं। एक खूब धन कमाता है, दो नहीं कमाते । पिता की सारी प्रियता उस कमाऊ बेटे की ओर प्रवाहित होने लग जाती है। दोनों बेटे अप्रिय बन जाते हैं।
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