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मानसिक शक्ति और सामायिक
उधेड़बुन भी ध्यान से समाप्त हो जाती है ।
प्रेक्षा- ध्यान में शरीर और श्वास की प्रेक्षा की जाती है । जब मन शरीर की प्रेक्षा में लग जाता है तब बाहरी विकल्प समाप्त हो जाते हैं । यदि हम दिन में आधा घंटा भी विकल्पशून्य रह सकते हैं, विचारों की उधेड़बुन से छुट्टी पा सकते हैं तो समूचे दिन की क्रिया संपन्न हो जाती है, फिर और कुछ करने की जरूरत ही नहीं होती । प्रेक्षा से बड़ी-बड़ी उपलब्धियां भी संभव हो सकती हैं ।
भरत चक्रवर्ती ने प्रेक्षा के द्वारा बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त की । एकः दिन वे स्नानगृह में गए । स्नान से निवृत्त होकर वस्त्र धारण कर बाहर आए । अपने आदर्श गृह (कांचघर) में गए । आदर्शगृह वह होता है जिसमें सब कुछ प्रतिबिम्बित हो सकता है। वहां जाकर वे बैठ गए। चारों ओर उनके प्रतिबिम्ब दीखने लगे । एक प्रतिबिम्ब पर उनका ध्यान अटका । वे उसे T अनिमेष दृष्टि से देखने लगे । अनिमेष प्रेक्षा प्रारंभ हो गयी । भरत अपने ही प्रतिबिम्ब में खो गए । स्थूल शरीर की प्रेक्षा करते-करते वे सूक्ष्म शरीर की प्रेक्षा करने लगे । सबसे ज्यादा सूक्ष्म शरीर है कर्म शरीर । वे कर्मों के विपाक की प्रेक्षा करने लगे। वहां घटित होने वाली सूक्ष्मतम अवस्थाओं को वे देखने लगे । असंख्य और अनन्त अवस्थाएं । सारे पर्याय सामने आने लगे । सारा नया ही नया । नया संसार दृष्टिगोचर होने लगा । अनिमेष दृष्टि | आंखें प्रतिबिम्ब पर टिकी हुई हैं और वे सूक्ष्मतम पर्यायों का अवलोकन कर रही हैं । शरीर की प्रेक्षा करते-करते शुभ परिणाम आए । शुभ अध्यवसाय और लेश्या बढ़ती गयी। एक बिन्दु ऐसा आया कि समग्र चेतना निरावृत हो गयी । आवरण हट गया । सारे बंधन टूट गए। पूर्ण चेतना प्रकट हो गयी । वे केवलज्ञान और केवलदर्शन को उपलब्ध हो गए। अब भरत चक्रवर्ती समाप्त हो गए । नए धर्म चक्रवर्ती का जन्म हो गया । आदर्शगृह में बैठे-बैठे, इस शरीर प्रेक्षा के द्वारा उन्होंने उच्चतम उपलब्धि प्राप्त कर ली ।
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परंपरा के अनुसार भरत के इस कथानक में कुछ भेद है । अंगुली से अंगूठी के गिर जाने पर भरत चक्रवर्ती अनित्य भावना में आरूढ़ होते हैं और भावना के प्रकर्ष में केवलज्ञानी बन जाते हैं । यह परंपरागत कथानक है । किन्तु जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में 'अत्ताणं पेहेमाणे' का सष्ट पाठ है । वे शरीर को देखते-देखते, अपने शरीर की प्रेक्षा करते-करते इतने गहरे चले गए कि अनन्त अनन्त कर्म-वर्गणा के स्कंधों को चीरकर पूर्ण चेतना, केवल चेतना के साम्राज्य में प्रवेश पा लिया। वहां जाते ही जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ
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