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मानसिक शक्ति और सामायिक
२४५ वीतरागता और शक्ति-ये चारों जागेंगे तब व्यक्तित्व का पूरा विकास होगा। सारा जीवन खिल उठेगा। चारों साथ-साथ नहीं जागेंगे तब व्यक्तित्व का पूरा विकास नहीं होगा। एक दिशा में होने वाला विकास कभी इष्ट नहीं होता । जब फैलाव चारों दिशाओं में होता है तब वह इष्ट होता है। शक्ति का बहुत बड़ा महत्त्व है । हम इसे अस्वीकार नहीं कर सकते। किन्तु यदि केवल शक्ति का ही विकास होता है, द्वन्द्वातीत चेतना का विकास नहीं होता है तो वह शक्ति लाभदायक नहीं होती। वह शक्ति द्वन्द्व को ही बढ़ायेगी, घटायेगी नहीं। द्वन्द्व-चेतना तनाव पैदा करती है । द्वन्द्व-चेतना आवेगों के लिए उर्वरक भूमि है, जहां सारे आवेग अंकुरित होते हैं। जितनी उत्तेजः नाएं हैं । वे सारी तनाव की स्थिति में पैदा होती हैं । जब व्यक्ति में तनाव नहीं होता तब आवेग नहीं आ सकता, उत्तेजना नहीं आ सकती, वासना का उभार नहीं हो सकता । ये सब तब आते हैं जब तनाव की स्थिति होती है। तनाव इसका जनक है । प्रत्येक संस्कार पहले तनाव पैदा करता है। तनाव पैदा किए बिना कोई भी संस्कार नहीं उभरता ।
द्वन्द्व-चेतना तनाव उत्पन्न करती है। जब तनाव होता है तब मानसिक रोग और मानसिक विकास उभरते हैं। उस समय व्यक्ति को यह नहीं लगता कि बहुत बड़ा अनर्थ हो रहा है। अनर्थ जैसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। किन्तु वे धीरे-धीरे संचित होते जाते हैं और एक बिन्दु ऐसा आता है कि वह मानसिक विकार मानसिक पागलपन के रूप में बदल जाता है । पागलपन की स्थिति आ जाती है। वर्तमान जगत् में मानसिक विकारों और मानसिक उन्मादों की जितनी भयंकर स्थिति है, संभवतः अतीत में वैसी नहीं रही होगी। आज मानसिक विकारों और मानसिक पागलपन को बढ़ाने के के लिए बहुत अवकाश है, सुविधाएं हैं। ऐसी स्थिति है कि आदमी का पागलपन बहुत बढ़ सकता है, मानसिक विकार बहुत बढ़ सकते हैं। इनके लिए वातावरण अनुकूल है। आज मानसिक विकार इतने बढ़ गए हैं कि उनका समाधान नहीं हो रहा है। उनकी चिकित्सा असंभव-सी प्रतीत हो रही है।
आज की साइको-सोमेटिक पद्धति के द्वारा एक बात प्रतिपादित हुई है कि जो बहत सारी शारीरिक बीमारियां समझी जाती हैं, वे वास्तव में मनोकयिक बीमारियां हैं, मन और शरीर से संबंधित बीमारियां हैं। वे केवल शारीरिक बीमारियां नहीं हैं । वे पहले मन में जन्म लेती हैं और फिर
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