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किसने कहा मन चंचल है पाएगा। वह दोनों के बीच में रहेगा। कभी हर्ष और कभी शोक-इसी धेरे में बंधा रहेगा । वह कभी रुष्ट होगा और कभी तुष्ट, कभी राजी और कभी नाराज । यह स्थिति बराबर बनी रहेगी। उसे एक ओर यह निराशा सताएगी कि मैं इतना शक्तिशाली हो गया, फिर भी मैं इतना अशान्त, उद्विग्न और प्रताणित हूं, इतनी समस्याओं से घिरा हुआ हूं। यह तथ्य उसे कचोटने लगेमा । कमजोर आदमी तो समझता है कि मैं दुर्बल हं इसीलिए सतत सताया जा रहा हूं। इतना सोचकर वह संतोष कर लेगा। किन्तु शक्तिसम्पन्न व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता । एक ओर उसे शक्ति का दर्प सताता है और दूसरी ओर यह विचार सताता है कि मैं जो चाहता हूं वह नहीं तो रहा है।
। केवल शक्ति से ही सब कुछ नहीं होता । यह समन्वय का संसार है। किसी एक तत्त्व से कुछ नहीं होता । प्रकृति के सारे तत्त्वों में ऐसा सामंजस्य .
और संतुलन है कि अनेक मिलते हैं तभी एक घटना घटित होती है। एक से कोई घटना घटित नहीं होती। यह संसार सहयोग और समवाय का संसार है । सब समवेत हों तो एक कार्ग बन जाता है। केवल शक्ति से कुछ नहीं होता।
आनन्दमय जीवन के लिए चार तथ्य अपेक्षित होते हैं । जब वे चारों तथ्य समन्वित होते हैं तब पूर्ण जीवन जीया जा सकता है। वह जीवन जिसमें कोई कमी खलती नहीं, कोई अशांति और बेचैनी नहीं। वे चार तथ्य हैंज्ञान, दर्शन, वीतरागता और शक्ति । जब इन चारों का अवतरण एक साथ होता है तब व्यक्ति में पूर्णता आती है। ऐसी स्थिति में न शक्ति-शून्यता का अनुभव होता है, न अशांति और उद्वेग का अनुभव होता है और न अनुभव होता है कि जीवन में कोई खालीपन है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जीवन सरिता की भांति प्रवहमान है, जिसके दोनों तटबन्ध व्यवस्थित हैं, जिसमे जीवन-धारा निर्बाध गति से प्रवाहित हो रही है। यह सब होता है समन्वित के द्वारा । एक से कुछ नहीं होता। हम एक की ही उपासना न करें। हम केवल शक्ति के, केवल चेतना के या केवल वीतरागता के उपासक न बनें । हम केवल ज्ञान के, केवल दर्शन के केवल पवित्रता के और केवल शक्ति के ही उपासक न बनें । हम चारों के उपासक बनें। हम यह मानकर चलें कि वीतरागता होगी तो चेतना का जागरण होगा, चेतना का जागरण होगा तो शक्ति का संवर्धन होगा; शक्ति का जागरण होगा तो वीतरागता का जागरण होगा। चारों साथ-साथ जागेंगे । ज्ञान, दर्शन,
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