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किसने कहा मन चंचल है
देखना। हमारा घोष है-आत्म के द्वारा आत्मा को देखें । श्वास को देखना भी आत्मा को देखना है, क्योंकि श्वास उसी का एक हिस्सा है । श्वास इसीलिए संचालित हो रहा है कि आत्मा उस पर छाया हुआ है । उस पर आत्मा का अनुग्रह बरस रहा है, इसीलिए वह श्वास है, प्राण है। आत्मा न हो तो श्वास होगा ही नहीं । शरीर को देखना, उसके सूक्ष्मतम स्पंदनों को देखना भी आत्मा को देखना है । शरीर के स्पंदन आत्मा से बने हुए हैं, इसीलिए हम शरीर के स्पंदनों को देखने को महत्त्व देते हैं । आत्मा को देखने के लिए हम इन सबको देख रहे हैं । जो अनन्यदर्शी होता है वह आत्मा के अतिरिक्त
और किसी को नहीं देखता । जिस साधक में इतनी गहरी निष्ठा होती है वही उस परम को प्राप्त कर सकता है।
आत्मा को देखने के लिए मन की शक्ति का जागरण अत्यन्त अपेक्षित है । हमारा ध्येय स्पष्ट है, किन्तु उस ध्येय की पूर्ति के लिए मानसिक शक्ति का स्फोट आवश्यक है।
मन की शक्ति को शिथिलीकरण या पूर्ण विश्रान्ति के द्वारा जगाया जा सकता है । मनोगुप्ति, वाक्गुप्ति और कायगुप्ति के द्वारा उसे जगाया जा सकता है। डॉक्टर की भाषा में पूर्ण विश्राम का अर्थ होता है-बिस्तर पर लेटे रहना । अध्यात्मशास्त्र के अनुसार उसका अर्थ है---मन, वाणी और शरीर-तीनों को सुला देना । जहां डॉक्टर केवल शरीर को सुलाता है, वहां अध्यात्म योगी तीनों को सुला देता है। डॉक्टर कभी-कभी वाणी को सुलाने की बात कहता है, मौन रहने की बात कहता है । पर मन को सुलाने की बात उसे प्राप्त भी नहीं है । अध्यात्म की साधना करने वाला साधक मन की गुप्ति को साधता है, वचन की गुप्ति को साधता है और शरीर की गुप्ति को साधता है । वह तीनों गुप्तियों से युक्त होकर अपनी सारी प्रवृत्तियों को सुला देता है।
चौथा महत्त्वपूर्ण तथ्य है- भावना । भावना का अभ्यास बहुत सूक्ष्म बात है । जब तक भावना का अभ्यास नहीं होगा, जब तक मन परम से भावित नहीं होगा, तब तक शक्तियों का विकास नहीं होगा। 'भाविअप्पा' भावितात्मा शब्द जैन आगमों का महत्त्वपूर्ण शब्द है। उसके पीछे रहस्यमयी मावना छिपी हुई है। जो भावितात्मा होता है वह अपनी भावना के अनुसार काम करने में सक्षम होता है । भावना का अर्थ केवल कुछ सोच लेना मात्र नहीं है। उसका अर्थ है - हमारे ज्ञान-तन्तुओं को, कोशिकाओं को अपने वा
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