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________________ १० किसने कहा मन चंचल है पथ भी छोटा । किन्तु हम देखते नहीं, देखना जानते नहीं, इसलिए रास्ता बड़ा लगता है । यात्रा बहुत छोटी है | आपको केवल इस बिन्दु पर पहुंचना है - 'मैं ज्ञाता हूं। मैं द्रष्टा हूं ।' यहां पहुंचते ही आपकी यात्रा संपन्न हो जाती है । कितनी छोटी यात्रा है ? यात्रा छोटी, उसका पथ भी छोटा और उसका वाहन भी एक छोटा । बहुत वाहन नहीं हैं, एक ही वाहन है । वह वाहन है— प्राणधारा । हम दो तत्वों के बीच जी रहे हैं- एक है ज्ञाताभाव, द्रष्टाभाव और दूसरा है तैजस, प्राण की धारा । जब हमारी प्राण की धारा का प्रवाह ज्ञाता और द्रष्टाभाव से हटकर दूसरी ओर बहने लगता है तब हमारी यात्रा का मार्ग बहुत लंबा हो जाता है । दूरी बढ़ती चली जाती है, व्यवधान आते चले जाते हैं, पर्दे पर पर्दे गिरते चले जाते हैं और ऐसा लगने लगता है किप्रकाश खो गया है और चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार छा गया है । भरत ने बाहुबली के पास दूत भेजा । दूत ने जाकर कहा - " भरत ने कहलवाया है कि तुम तक्षशिला में रहते हो और मैं अयोध्या में । बीच में अनेक पहाड़ियां हैं, नदियां हैं, जंगल हैं । और भी बहुत कुछ हैं । ये सारी चीजें भले हों, कोई चिन्ता की बात नहीं है । तुम्हारे और मेरे बीच इतनी क्षेत्रीय दूरी है, इतने सारे व्यवधान हैं, फिर भी कोई बात नहीं है । हम दोनों के बीच कोई चुगलखोर न हो । यदि वह नहीं है तो हम बहुत निकट : हैं और यदि वह है तो हम निकट होकर भी दूर हैं ।" ज्ञाता और द्रष्टा तथा प्राणधारा के बीच में कोई चुगल न हो तो कोई दूरी नहीं है । यदि मोह आ जाता है, कोई आसक्ति आ जाती है तो दूरी बढ़ जाती है और प्राणधारा का प्रवाह मुड़ जाता है, दूसरी ओर बहने लग जाता है । अस्तित्ववादी धारणा और आत्मवादी धारणा में दो बातें फलित होती हैं - एक है ज्ञान दर्शन और दूसरी है शक्ति । शक्ति के बिना ज्ञान दर्शन का उपयोग नहीं हो सकता । कर्म शास्त्रीय परिभाषा में कहा जा सकता है कि जब तक अन्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता तब तक न ज्ञान का उपयोग हो सकता है और न दर्शन का उपयोग हो सकता है । न जाना जा सकता है और न देखा जा सकता है । जानने और देखने का आवरण नहीं है | ज्ञानावरण का क्षयोपशम है, दर्शनावरण का क्षयोपशम है । जानने और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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