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किसने कहा मन चंचल है
के मन में हीन भावना पैदा हो गयी और उनका प्रयत्न शिथिल हो गया । यह सच है । ऐसा ही हुआ है । जब आदमी मानकर बैठ जाता है तब उस दिशा में गमन ही नहीं होता । व्यक्ति उस ओर एक डग भी नहीं - भरता । उसकी हार तो पहले ही हो जाती है । प्राप्ति की बात सर्वथा छूट जाती है ।
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एक व्यक्ति ने अपने मित्र से साठ रुपये उधार लिये । कुछ दिन बाद वह आया और बीस रुपये देकर बोला -- " सारे रुपये आ गए ?" मित्र ने कहा - " साठ दिए थे और तुम बीस लौटा रहे हो, तो अभी चालीस रुपये बाकी रहेंगे । तीस और तीस साठ होते हैं। उसने कहा- "नहीं, दस और दस साठ होते हैं । मैंने साठ रुपये लौटा दिए हैं ।" मित्र ने कहा--" भोले आदमी ! दस और दस बीस ही होते हैं। तीस और तीस साठ होते हैं ।" उसने कहा - " मैं इस बात को नहीं मानता। मैं तो यही मानता हूं कि दस और दस साठ होते हैं । मेरी मान्यता मेरे पास और तुम्हारी मान्यता तुम्हारे पास ।"
ऐसे मानने वाले को विधाता भी नहीं समझा सकता । गणित का नियम है- तीस और तीस साठ होते हैं। दस और दस बीस होते हैं । कोई व्यक्ति इस गणित के नियम को जानने की बात छोड़कर, मानने की बात को ही पकड़ बैठता है तो उसका कोई इलाज नहीं है ।
हम मानने की बात को छोड़ दें और जानें । सदा जानने का प्रयत्न करें । सदा जानें। हम विशिष्ट उपलब्धियों के लिए प्रयत्न करें। वे प्राप्त हों तो ठीक है, न हों तो कोई बात नहीं । पुरुषार्थ को सही दिशा में लगाएं । पुरुषार्थ निरंतर हमारा साथ दे । हम प्रयत्न को बंद न करें ।
पुरुषार्थ को साथ लेकर चलें । मन और शरीर को विशेष आदेश दें । मन जो भटकता रहता है, अनेक प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है, बहुत अधिक सक्रिय और गतिशील है, उस पर हम कुछ नियंत्रण करें। मन की सक्रियता को कम करें । यह कायोत्सर्ग के द्वारा हो सकता है । कायोत्सर्ग की प्रक्रिया शक्ति-संतुलन की प्रक्रिया है । हमारी शक्ति क्षीण न हो । शक्ति बनी रहे । उसके लिए शरीर को पूरा पोषण मिलता रहे । केवल खाने से ही पोषण नहीं मिलता । कायोत्सर्ग भी उस पोषण की एक कड़ी है । कायोत्सर्ग का अर्थ है - काय गुप्ति | की शक्ति भी क्षीण न हो । मनोगुप्ति से
मनोगुप्ति करें, जिससे की मन मन की सक्रियता कम होती है ।
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