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किसने कहा मन चंचल है
ऐसा लगता है कि सब कुछ पा लिया। कुछ भी करने को नहीं है, कुछ भी करना शेष नहीं है । जब आदमी प्रमाद में चला जाता है तब वह विजय की बात को भूल जाता है, लक्ष्य को भूल जाता है, उद्देश्य को भूल जाता है। आज तक दुनिया में ऐसा व्यक्ति कौन हुआ है जो प्रमत्त रहा हो और अपने आपको न भुला दिया हो। भगवान महावीर ने कहा-“सव्वओ पमत्तस्स भयं ।' प्रमाद भय उत्पन्न करता है।" जो प्रमत्त होता है, चारों ओर से भय उसे घेर लेता है। भय बरसने लगता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता कि प्रमत्त हो और डरा न हो । वह निश्चित ही डरेगा।
प्रमाद आता है, आलस्य आता है, अकर्मण्यता आती है। सामने जीतने की स्थिति होती है, पर ये उसे जीतने नहीं देतीं। वह सोचता हैक्या करना है ? अभी बैठे हैं । कैसे पार पड़ेगा ? कैसे होगा ?
__एक कहानी है । एक राजा था। उसे मंत्री की नियुक्ति करनी थी। वह नियुक्ति से पूर्व परीक्षा करना चाहता था। पांच-सात व्यक्ति आए। उसने सबको एक कमरे में बिठाकर कहा--"आप सब यहां बैठे। मैं कमरे के बाहर ताला लगा देता हूं। जो भी ताले को खोलकर बाहर निकल भाएगा उसे मत्री बनाऊंगा।' सबने सुना। सोचा-"कितनी विचित्र परीक्षा। दरवाजा बंद । बाहर से ताला बंद और भीतर वालों से कहे कि बाहर आओ। यह असंभव है।' छह व्यक्तियों ने सोचा-'राजा पागल हो गया लगता है। यह भी कोई परीक्षा होती है ! दूसरे प्रकार से भी परीक्षा ली जा सकती थी। बाहर जाना कसे संभव हो सकता है ?' वे हाथ पर हाथ दिए बैठे रहे । कुछ पराक्रम नहीं किया। सातवां व्यक्ति अकर्मण्य नहीं था, पुरुषार्थी था। उसने सोचा-'जरूर इस शर्त में कोई रहस्य है। राजा ऐसी शर्त क्यों रखता ? मुझे अपना पुरुषार्थ करना है। वह उठा। दरवाजे के पास गया । उसे जोर से ढकेला, वह खुल गया। उसने बाहर आकर राजा का अभिवादन किया। दरवाजे पर कोई ताला लगाया ही नहीं था, केवल सबको भुलावे में रखा था। राजा जानना चाहता था कि कौन कर्मण्य है और कौन अकर्मण्य । सबका कर्तव्य था कि वे पुरुषार्थ करते । ताला खुले या नहीं, यह अलग प्रश्न था । उन्होंने सोचा---'जब बाहर ताला है तब दरवाजा कैसे खुलेगा?' इसी भ्रम ने उन्हें अकर्मण्य बना डाला । वे बाजी हार गए। जिसने पुरुषार्थ किया, कर्मण्यता का परिचय दिया, वह जीत गया। वह मंत्री बन गया।
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