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________________ १६६ किसने कहा मन चंचल है बाहुबली कभी किसी की आज्ञा नहीं मानेगा। बाहुबली सर्वथा स्वतंत्र है सर्वथा स्वतन्त्र रहेगा। परतंत्रता में वह कभी नहीं जीएगा।" इसका परिणाम हुआ-युद्ध । यदि बाहुबली नत हो जाता तो युद्ध टल जाता। वह नत नहीं हुआ, युद्ध की विभीषिका चारों ओर फैल गयी। इस युद्ध से हम भरत और बाहुबली-इन दो शब्दों को निकाल दें तो यह लड़ाई मोह की विशाल सेना और चैतन्य की सेना के बीच है। मोह सदा से मनुष्य को अपनी आज्ञा मनवाने का प्रयत्न कर रहा है, अपनी प्रभुसत्ता में उसे रहने को बाध्य कर रहा है। किन्तु कोई बाहुबली होता है तो वह सर्वथा इन्कार कर देता है। ऐसे बाहुबली कम ही होते हैं। बहुत सारे तो आज्ञा मानने वाले ही होते हैं। वे सब प्रणत हो जाते हैं इस मोह राजा के सामने, जैसे भरत के सामने सारे राजा प्रणत हो गए थे। एक बाहुबली ही ऐसा वीर था जिसने उसकी आज्ञा को ललकारा और प्रणत होने से सर्वथा इन्कार कर दिया। इसी प्रकार जिनकी चेतना में कुछ स्फुरण हो चुका है, कुछ स्फुलिंग उछलने लगे हैं, वह बाहुबली कभी भी मोह के राजा के सामने प्रणत नहीं हो सकता। वह उसकी प्रत्येक चुनौती को झेलता है और अपने पराक्रम से उसके साम्राज्य को खंड-विखंड करने का प्रयत्न करता है। वह ललकारते हुए कहता है-"मैं मेरी सत्ता में रहूंगा । मैं किसी दूसरे की सत्ता में नहीं जाऊंगा। मैं अपनी ही आज्ञा मानूंगा। दूसरे की आज्ञा मुझे सर्वथा अमान्य होगी। मैं अपनी ही प्रभुसत्ता में जीऊंगा। दूसरे की प्रभुसत्ता को मैं सर्वथा ठुकराए चलूंगा।" साधक ऐसा ही बाहुबली होता है। साधना करते-करते उसमें सोया हुआ बाहुबली जाग उठता है । तब वह मोह-मूर्छा को आज्ञा मानना बन्द कर देता है । आत्मविश्वास जाग उठता है और वह मोह से लड़ाई छेड़ देता हमने यही किया। लड़ाई प्रारम्भ है । हमें दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि जो अपनी स्वतंत्रता की सुरक्षा करना चाहता है वह कभी भी मोह की विशाल सेना से पराजित नहीं हो सकता । वह निश्चित विजयी होगा। कोई उसे पराजित नहीं कर सकता। यदि दृढ़ विश्वास में कमी आती है तो वह लड़खड़ा सकता है। यदि उसका विश्वास दृढ़ है, संकल्प फौलादी है तो वह कभी नहीं हार सकता। वह सब पर विजय प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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