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सत्य को स्वयं खोजें करने में अनेक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। एक आदमी तंग जूते पहने जा रहा था। सामने से दूसरे व्यक्ति ने पूछा-"भाई ? जूते बहुत ही तंग पहन रखे हैं, क्या बात है ?" उसने कहा-"तंग हैं तो हैं, तुम्हें क्या ?" फिर उसने पूछा-"कहां से लाये ?" वह तो गुस्से में था ही। बोला-'पेड़ से तोड़कर लाया हूं।" वह सज्जन व्यक्ति बोला-"भले आदमी ! कुछ और रुक जाते, प्रतीक्षा करते । पकने देते । तुमने कच्चे ही तोड़ लिए, इसीलिए ये तंग हो रहे हैं।"
कच्चा जूता तंग होता है, कच्चा फल खट्टा होता है, तो कच्ची साधना अच्छी कैसे होगी? हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि फल पक जाए। वह खट्टा न रहे। पकने के लिए प्रतीक्षा करनी होती है। वह एक ही क्षण में घटित नहीं होती।
साधना के मार्ग में जल्दबाजी खतरनाक होती है। धीमे-धीमे अभ्यास को बढ़ाना चाहिए, अन्यथा शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है । उसे संभाल पाना कठिन हो जाता है। धैर्य के साथ चलें। अधैर्य की स्थिति उत्पन्न न होने दें। अमन की भूमिका प्राप्त करने के लिए उतावले न हों। मन की भूमिका जब समुचित ढंग से चलती रहेगी, आलंबन शुद्ध और मन की एक दिशागामिता बनी रहेगी तो एक दिन वह समुद्र में पहुंच जाएगा, अमन हो जाएगा। हम सत्य की खोज के लिए निकल पड़े हैं, हमें सत्य को खोजते जाना है। बहुत सारे सत्य को खोजना है।
सत्य के खोज की कुछेक दिशाएं मैंने स्पष्ट की हैं। साधक अपने अनुभव और प्रयोगों के आधार पर सत्य की खोज करे और इस सचाई को सदा सामने रखे-'अप्पणा सच्च मेसेज्जा, अप्पणा सच्च मेसेज्जा'-स्वयं सत्य को खोजो, स्वयं सत्य को खोजो।
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