SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ किसने कहा मन चंचल है की हैं, जो देखा है, जो पाया है, जो अनुभव किया है, उसको उन्होंने दूसरों को बतलाया । दूसरों ने सुना । लाभ उठाया । पर पूरा लाभ नहीं मिला । दूसरों के वह काम आया, पर पूरा काम नहीं आया । उन अतीन्द्रियसाधकों ने आत्मानुभूति का सत्य दूसरों के सामने प्रस्तुत किया, किन्तु उस अभिव्यक्ति के माध्यम से जो सत्य की अनुभूति होनी चाहिए थी, वह किसी को नहीं हुई । वचन के माध्यम से प्राप्त वह सत्य श्रुति के काम आया, सुनने के काम आया तथा मस्तिष्क और बुद्धि के काम आया, किन्तु वह अनुभूतिगम्य नहीं बना । वह अनुभूतिगम्य तब बना जब -सुनने वालों ने स्वयं खोज प्रारंभ की, स्वयं उसको उपलब्ध हुए । उससे पहले कुछ भी नहीं हुआ । सुनना व्यर्थ नहीं गया । उससे खोज की पृष्ठभूमि तैयार हुई । वह पृष्ठभूमि तब तक पृष्ठभूमि ही बनी रहती है जब तक साधक उसको आधार बनाकर आगे बढ़ नहीं चलता । साधक जब तक अनुभव के स्तर पर उस सत्य को नहीं पा लेता तब तक वह यह नहीं कह सकता कि'यह सचाई है, जिसका मैंने प्रत्यक्षतः अनुभव किया है ।' वह तब तक दूसरों की दुहाई देता रहता है । यह उधारी बात है । वह यह कह सकता है - यह आगमों की सचाई है, गीता या बाइबिल की सचाई है, ग्रन्थ साहब या कुरान की सचाई है, पिटक या अन्य धार्मिक शास्त्र की सचाई है । वह कभी नहीं - कह सकता कि यह मेरी सचाई है । यह मेरा भोगा हुआ सत्य है । यह मेरा जाना देखा हुआ सत्य है । जब व्यक्ति उस सत्य को उपलब्ध हो जाता है, उसे साक्षात् कर लेता है, तभी वह कह सकता है—यह मेरा सत्य है । मैंने इसे जाना - देखा है ।' - ऐसा क्षेत्र है जिसमें अध्यात्म का क्षेत्र वैज्ञानिक क्षेत्र है । यह एक - सबको वैज्ञानिक होना पड़ता है । जो भी इस यात्रापथ पर चलता है, उसे वैज्ञानिक बनना ही पड़ता है। ऐसा नहीं होता कि आचार्य तुलसी वैज्ञानिक बन जाएं, सत्य की खोज करें और शेष सारे उनके अनुयायी बनकर उस खोजे हुए सत्य का उपभोग करते रहें । ऐसा नहीं हो सकता । प्रत्येक साधक को - वैज्ञानिक बनना होता है, परीक्षण करना होता है और सत्य को ढूंढ निकालना होता है । 'सत्य को खोजो' - इतना ही पर्याप्त नहीं है। महावीर ने इसके पीछे 'अप्पणा' - स्वयं - शब्द लगाकर इस ओर संकेत किया कि 'सत्य को खोजो' - यह अधूरी बात है । 'स्वयं सत्य को खोजो' - यह पूरी बात है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy