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किसने कहा मन चंचल है
महीने में इतनी ही पंक्तियां लिखी गयीं ? हमारे इतने धन का व्यय हो गया ! वे पूछते हैं पंडित से कि आज क्या किया ? वह कहता है - कुछ भी नहीं । उस शब्द का सही अर्थ नहीं मिला । गाड़ी अटक गयी । आगे नहीं बढ़ सके । इस उत्तर से वे अधिकारी सोचते हैं - यह कैसा कार्य ? रोज-रोज उसकी निष्पत्ति आनी ही चाहिए । कुछ नहीं हो रहा है । संस्थान को चलाने से क्या लाभ ?
आत्मा की शोध करने वाले, खोज करने वाले, चलते हैं और चलते जाते हैं । खोजते जाते हैं, कुरेदते जाते हैं, चीर-फाड़ करते जाते हैं । कुछ समय बाद उन्हें लगता है कि यह काम निकम्मा है । जो प्रारंभ नहीं करते उन्हें भी लगता है कि यह काम निरर्थक है ।
शोध धर्म सापेक्ष होता है । खोज वही कर सकता है जो धीर होता है । अधीर व्यक्ति खोज नहीं कर सकता ।
मुझे अनुभव है और मैं यह निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि साधना करने वाला प्रत्येक साधक, जो निष्ठापूर्वक साधना करता है, वह कुछ-न-कुछ प्राप्त करता ही है । उसे अनुभव होता ही है । जिन्होंने इन शिविरों में साधना की है, उनमें अध्यात्म की भूख जागी है, प्रकाश के स्फुलिंग उछले हैं और वे प्रकाश से भरे हैं । उनमें यह भावना पनपी है कि साधना चलनी चाहिए । यह अच्छा सूचक है ।
अध्यात्म-पथ पर यात्रा करना निरर्थक नहीं है, यह जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है, उपलब्धि है ।
श्वास- प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, दीर्घश्वास- प्रेक्षा, समवृत्ति श्वास- प्रेक्षा, चैतन्य - केन्द्र- प्रेक्षा, लेश्या-ध्यान, कायोत्सर्ग - ये सारी प्रक्रियाएं हैं रूपान्तरण की । फिर उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी कि ऐसा बनो, वैसा बनो, धार्मिक बनो, स्वार्थ को छोड़ो, भय और ईर्ष्या को छोड़ो। यह केवल उपदेश है उपदेश कारगर नहीं होता । जो उपाय निर्दिष्ट किए गए हैं, उनको काम में लो । स्वयं एक दिन यह स्पष्ट अनुभव होने लगेगा कि रूपान्तरण घटित हो रहा है । धार्मिक वृत्ति का जागरण हो रहा है, क्रोध और मान छूट रहे हैं, माया लोभ टूट रहे हैं । उन दोषों से छुटकारा पाने के लिए अलग से प्रयत्न करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी । ये स्वयं मिटते जाएंगे । इन दोषों को मूलतः नष्ट करने का यही उपाय है ।
दस दिन का शिविर संपन्न हुआ । एक साधक ने बताया -- आज सारा
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