________________
किसने कहा मन चंचल है
निस्सार है । भीतर का सार इतना है कि बाहर का सार नगण्य है, तुच्छ है। भीतर सार का समुद्र लहरा रहा है और बाहर सार की दो-चार बूंदें बिखरी-सी लगती हैं। कहां भीतर में विद्यमान सार का अतुल भंडार और कहां बाहर में पड़ा निस्सार का अंबार ? दोनों की कोई तुलना नहीं हो सकती । जो सार बनाता है, सार की अनुभूति कराता है, जो सार का मूल्य देता है, वह तो भीतर है। अगर भीतर वाला सो जाए तो सारा सार असार हो जाए, सारा सार्थक निरर्थक बन जाए। सार बनाने वाला, सार का मूल्यांकन करने वाला, सार का स्थान देने वाला जो है वह परमात्मा, वह देवता भीतर बैठा है, बाहर नहीं है ।
हमने इस अध्यात्म की यात्रा के साथ दोहराना प्रारंभ कर दिया है-'संपिक्खए अप्पगमप्पएण' आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो ।'यह उद्घोष, यह स्वर सामने आते ही आत्मा के अतिरिक्त दूसरे को देखने की बात ही समाप्त हो जाती है। 'आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो-यह उद्घोष इस बात का सूचक है कि आत्मा में बहुत सार है, उसे देखो। और किसी माध्यम से नहीं, केवल आत्मा के माध्यम से देखो।
____ अध्यात्म-यात्रा के जो नये-नये पथिक हैं, उन्हें इस पथ पर चलने में कठिनाई का अनुभव हो सकता है, कुछ बाधाएं भी सामने आ सकती हैं । उनको यह लग सकता है कि आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो--इस घोष में दो आत्माएं कहां से आ गयीं। एक देखने वाली आत्मा और एक दृश्य बनने वाली आत्मा। दो आत्माएं । कौन देखे ? किसे देखे ? यह उलझन स्वाभाविक है, अस्वाभाविक नहीं है। यहां आत्मा भी बंट गयी। आदमी का यह स्वभाव है कि वह बांटता जाता है। व्यवसाय के क्षेत्र में बंटवारा है। धर्म के क्षेत्र में बंटवारा है। राजनीति के क्षेत्र में बंटवारा है। सभी बंटे हुए हैं । और यह सब मनुष्य द्वारा कृत है। उसने आगे बढ़कर आत्मा को भी बांट दिया, दो कर दिया । एक वह जिसके द्वारा हम देखें और एक वह जिसको हम देखें। दो आत्माएं बन गयीं । यह वैध हो गया। यह उलझन जैसी लगती है, पर कोई उलझन नहीं है। यह उलझन तब तक ही प्रतीत होती है, जब तक अध्यात्म की यात्रा प्रारंभ नहीं होती। इस पथ पर जैसेजैसे चरण आगे बढ़ेंगे, उलझन सुलझती चली जाएगी। समाधान होता जाएगा। जब हम अंतिम विन्दु पर पहुंचेंगे तब वहां समस्या ही नहीं रहेगी। सब स्पष्ट हो जाएगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org