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________________ १६४ किसने कहा मन चंचल है पर, प्रियता के नाम पर सारे दुःख झेल रहे हैं । दुःख बढ़ता ही चला जा रहा है । पदार्थ आता है । उसका उपभोग कर हम सुख की अनुभूति करते हैं । किन्तु जब परिणाम आता है तब दुःख का अनुभव होता है । पदार्थजन्य सुख की परिणति, निष्पत्ति दुःख ही होती है । हमें यह जान लेना चाहिए कि सुख किससे होता है और दुःख किससे होता है ? सुख क्या है और दुःख क्या है ? जब तक यह स्पष्ट बोध नहीं होगा तब तक हम उन सब पदार्थों को सुख मानते रहेंगे तो हमें अन्ततः दुःख में डालते हैं और जो हमें अन्ततः दुःख में नही डालते उनको हम दुःख मानते रहेंगे । हमें लगता है कि साधना करना दुःख है, नीरस है, कुछ भी नहीं है । यह इसलिए लगता है कि हमारी मान्यता, हमारी कल्पना पदार्थ के घेरे से सुख को मानने को नहीं होती । हम इस घेरे को तोड़कर देख ही नहीं पाते कि पदार्थ के बिना भी कोई सुख हो सकता है । पदार्थमुक्ति से भी सुख प्राप्त होता है-यह ज्ञान ही नहीं है । वास्तविकता यह है कि पदार्थ मुक्ति के बिना वास्तविक मुक्ति घटित ही नहीं होती । किन्तु हमने उल्टा मान लिया कि पदार्थ का बंधन हुए बिना दुःख - मुक्ति हो नहीं सकती । एक ओर यह सारा विश्व है, भौतिक जगत् है जो इस बात की उद्घोषणा करता है कि पदार्थ के विकास के बिना, पदार्थ को बढ़ाए बिना, दुःखों से मुक्ति नहीं हो सकती । दूसरी ओर अध्यात्म जगत् है जो इस बात की उद्घोषणा करता है कि पदार्थों से छुटकारा पाए बिना दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता । एक ओर कांचन भुक्ति का स्वर है तो दूसरी ओर कांचन-मुक्ति का स्वर है । एक ओद पदार्थ के संग्रह की घोषणा है तो दूसरी ओर पदार्थ मुक्ति की घोषणा है । ये दोनों बातें चल रही हैं जब तक मनुष्य स्नायविक तनाव का शिकार बना रहता है तब तक इस सचाई को समझ नहीं सकता । किन्तु जैसे ही वह ध्यान का अभ्यास करता है, स्नायविक तनाव धीरे-धीरे कम होने लगता है, ग्रन्थियों का स्राव संतुलित होता है, मस्तिष्क संतुलित होता है तब उसे आनन्द का अनुभव होता है । उसकी भ्रांति टूटने लगती है । पदार्थ मुक्ति का घेरा टूटता है और पदार्थ - मुक्ति की भावना का उदय होता है । बात यह है कि सुख का भरना हमारे भीतर बह रहा है और हम उसकी खोज बाहर कर रहे हैं । एक बुढ़िया सड़क पर सुई खोज रही थी । कुछ बच्चे आए, पूछा"दादी ! क्या खोज रही हो ?" बुढ़िया ने कहा - "सुई ।" बच्चों ने पूछा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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