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मानसिक संतुलन हैं। अपने ही अज्ञान के कारण हम इन रोगों को उत्पन्न कर रहे हैं ।
हमें दुःख से मुक्ति पाना है तो इस सूत्र को बार-बार दोहराना होगा ~ अप्पणा सच्च मेसेज्जा-आत्मा से सत्य की खोज करो। स्वयं सत्य को खोजो। सत्य को खोजे बिना दुःख से मुक्ति नहीं हो सकती । अज्ञान को मिटाना आवश्यक है।
रोगों का एक निमित्त कारण भोजन भी है। भोजन के विषय में भी हमारा अज्ञान है । अज्ञान मिटता है तो बहुत सारे रोग उत्पन्न ही नहीं होते और जो उत्पन्न हो चुके हैं वे भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं । रोग का मूल टूट जाता है।
जब हम जान लेते हैं कि मन कैसा हो, चिन्तन कैसा होना चाहिए, मन को कहां कैसे नियोजित करना चाहिए तो बहुत बीमारियां मिट जाती हैं।
इस लिए शरीर, मन और भोजन के विषय में हमें बहुत-कुछ जानना चाहिए । ये तीनों रोग के कारण हैं। तीनों की सही समझ रोग-निवारण में सहायक होती है।
__भोजन से दुःख कम होता है तो दुःख बढ़ता भी है। जितने पोषक द्रव्य हैं, उनमें पोषक तत्त्वों के साथ-साथ अपोषक तत्त्व भी हैं। आयुर्वेद के आचार्यों ने बहुत स्पष्टता से लिखा है कि विश्व में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो केवल अमृत हो या केवल विष हो। सर्वथा, निर्दोष, या सदोष पदार्थ एक भी नहीं है । सब कुछ मात्रा-भेद से होता है । मात्रा से ही पदार्थ निर्दोष होता है और मात्रा से ही पदार्थ सदोष होता है। मात्रा के भेद से संखिया भी अमृत है और अमृत भी संखिया है, विष है । सब कुछ मात्रा-भेद से होता है। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जिसे अमृत कहा जा सके या विष कहा जा सके । अमृत के साथ विष और विष के साथ अमृत जुड़ा हुआ है।
रोग-निवारण के लिए दवाइयां ली जाती हैं । क्या इनके साथ शरीर में जहर नहीं जाता ? बहुत जहर जाता है। दवाई से लाभ है तो हानि भी है। ऐलोपैथिक दवाई का सेवन करने वाले इसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। लाभ और हानि-दोनों साथ-साथ चलते हैं । अमृत और विष-दोनों साथ-साथ चलते हैं। मात्रा-भेद से हम किसी को लाभकारक मान लेते हैं और मात्रा-भेद से हम किसी को हानिकारक मान लेते हैं। किसी को हम सुखद मान लेते हैं और किसी को दुःखद मान लेते हैं। हम सुख के नाम
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