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स्थूल और सूक्ष्म की मीमांसा
१३६ करता है । वह इसका नियमन करता है कि इतना ज्ञान बाहर प्रकट होना चाहिए, इतना नहीं।
हमारे शरीर में भी एक व्यवस्था है। व्यक्ति को जब ज्यादा कष्ट होता है तब उसे मूर्छा आ जाती है । जब व्यक्ति पूरे कष्ट को सहन नहीं कर पाता तब वह मूच्छित हो जाता है। यह प्रकृतिगत व्यवस्था है। जब तक व्यक्ति कष्टों को सहन करने की सीमा में रहता है तब तक उसे कोई मूर्छा नहीं आती । जब कष्ट सीमा को पार कर जाता है, तब प्रकृति इसे मूच्छित कर देती है, जिससे कि उसे कष्टानुभूति न हो।
वैसे ही ज्ञान की व्यवस्था भी स्वतःचालित है। किस व्यक्ति को कितना ज्ञान मिलना चाहिए, कौन व्यक्ति कितने ज्ञान को वहन कर सकता है-यह सब सूक्ष्म शरीर--कर्म शरीर की व्यवस्था है। यदि इस व्यवस्था का अतिक्रमण होता है तो व्यक्ति पागल बन जाता है, मूच्छित हो जाता है । उस व्यक्ति में ज्ञान की क्षमता इतनी जागत है तो उसे उतना ही ज्ञान प्राप्त होगा, कम या अधिक नहीं। अधिक को झेलने की क्षमता नहीं है तो अधिक टिक नहीं पाएगा।
हम पढ़ते हैं कि अमुक व्यक्ति को जातिस्मृतिज्ञान (पूर्वजन्मज्ञान) हुआ । उसे पूर्व जन्मों की स्मृति हुई। अब उसका जीना दूभर हो गया। क्योंकि वह प्रत्यक्ष देखता है कि उसने यह किया, वह किया। उससे लड़ा, इससे लड़ा । उसे मारा, इसे मारा। वह घबरा जाता है । वह पागल हो जाता है । ऐसा इसीलिए होता है कि वह उन स्मृतियों के भार को झेल नहीं सकता। उसमें इतनी क्षमता विकसित नहीं है।
किसी की तीसरी आंख खुलती है । वह देखता है-अमुक दस दिन बाद मर जाएगा। अमुक का आज एक्सीडेंट होगा। अमुक का पति मर जाएगा। ऐसा होगा, वैसे होगा । संसार के सारे झंझट उसके सामने आ खड़े होते हैं । वह घबरा जाता है । घबराहट इसलिए होती है कि उसमें इन तथ्यों को झेलने की क्षमता नहीं होती।
___जब तक झेलने की क्षमता पूरी नहीं जागती तब तक यदि ज्ञान अधिक प्रकट होता है तो संतुलन बिगड़ जाता है। बिजली के वोल्टेज ज्यादा होते हैं और यदि इंसुलेशन नहीं होता है तो खतरा ही खतरा है। जब ज्ञान के वोल्टेज, चेतना के वोल्टेज ज्यादा जाग जाते हैं और यदि क्षमता के विकास का इंसुलेशन नहीं होता है तो व्यक्ति उसे मेल नहीं पाता ।
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