________________
१३६
किसने कहा मन चंचल है
ज्ञान हैं, पर ये भी अरूपी को जानने-देखने में असमर्थ हैं । अतीन्द्रियज्ञान की एक अन्तिम सीमा है जहां पहुंचकर व्यक्ति ने उद्घोषणा की कि हम जिस जगत् में जी रहे हैं वहां एक ऐसा भी तत्त्व है जो अरूपी है । जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श - कुछ भी नहीं है । जिसमें संघटन और विघटन नहीं है । जो न जुड़ता है और न बिखरता है । जो न स्कंध बनता है और न कुछ और। वह आकाश का अवगाहन करता है पर उसको रोकता नहीं । वह अप्रतिहत है । ऐसा एक भी स्थान नहीं जहां वह न हो, जहां वह न रहे । यह है अरूपी सत्ता |
अरूपी सत्ता और चेतना सत्ता- दोनों इन्द्रिय और मन के परे हैं । यदि हम इन्हें इन्द्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से जानना चाहें तो हम कभी नहीं जान पायेंगे । क्योंकि इन्द्रिय मन या बुद्धि के ये विषय नहीं बनते । जो जिसका विषय नहीं है, उसे उसके द्वारा समझने का प्रयत्न करना व्यर्थ है, प्रयत्न की कोई सार्थकता नहीं हो सकती । हम उसी के द्वारा उस विषय को जान सकते हैं जो जिसका साधन बन सके, गमक और ज्ञापक बन सके । दूसरे दूसरे साधनों की क्षमता के परे की बात है । उन्हें कोई दोष नहीं दिया जा सकता ।
यदि कोई व्यक्ति चेतनसत्ता को स्वीकार नहीं करता, अरूपी सत्ता को स्वीकार नहीं करता तो कोई आश्चर्य नहीं होता । आश्चर्य तब हो जब बुद्धि से जानने की बात भी बुद्धि से न जानी जाए। तब माना जा सकता है कि इस व्यक्ति में बौद्धिक विकास पर्याप्त नहीं है । इसके लिए उपाय करना चाहिए | एक मंदबुद्धि का आदमी है और एक प्रखर बुद्धि का आदमी है । दोनों में तरतमता है । इस तरतमता को मिटाने के लिए प्रयत्न होता है । बुद्धि का विकास करने का प्रयत्न किया जाता है । एक व्यक्ति की स्मृति कमजोर है और दूसरे व्यक्ति की स्मृति प्रखर है । तब कमजोर व्यक्ति की स्मृति को बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है । किन्तु जहां कोई तारतम्य का प्रश्न ही नहीं है, वहां विकास की बात प्राप्त नहीं होती । बुद्धि और स्मृति के विकास को चरम बिन्दु तक पहुंचाया जा सकता है, फिर भी अरूपी तत्त्व को नहीं देखा जा सकता । किन्तु अतीन्द्रियज्ञान की चरम सीमा पर पहुंचकर जिन्होंने इस अरूपी सत्ता का साक्षात्कार किया, वह बुद्धि के परे
का ज्ञान था ।
यह शरीर हमारी इन्द्रियों का विषय है, बुद्धि का विषय है । हम इसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org