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________________ शक्ति-जागरण के सूत्र १२६ और ही आए, यह नहीं हो सकता । जो बिम्ब है उसी का प्रतिबिम्ब आएगा। कर्मशास्त्रियों ने बिम्ब की भाषा में सारा प्रतिपादन किया और शरीरशास्त्रियों ने प्रतिबिम्ब की भाषा में सारा प्रतिपादन किया। दोनों में भाषा का अन्तर हो सकता है, तथ्य का नहीं। शरीरशास्त्रीय हारमोंस, सिक्रिशन ऑफ ग्लैन्ड्स, प्रन्थियों का स्राव कहते हैं । कर्मशास्त्री कर्मों का रस विपाक, अनुभावबंध कहते हैं। वह भी रस और यह भी रस । भाषा भी मिल गई। सूक्ष्म शरीर के द्वारा जो विपाक होता है उसका रसस्राव अन्थियों के द्वारा होता है और वह हमारी सारी प्रवृत्तियों को संचालित करता है, प्रभावित करता है। यदि हम इसे उचित रूप में जान लेते हैं तो हम स्थूल शरीर तक कभी नहीं रुकेंगे, और आगे बढ़ेंगे । साधना का यही प्रयोजन है कि हम आगे से आगे बढ़ते जाएं, स्थूल शरीर पर ही न रुकें, उससे आगे सुक्ष्म शरीर तक पहुंच जाएं । हमें उन रसायनों तक पहुंचना है जो कर्म के द्वारा मिश्रित हो रहे हैं । वहां भी हम न रुकें, आगे बढ़ें और आत्मा के उन परिणामों तक पहुंचें जो उन स्रावों को मिश्रित कर रहे हैं। __ स्थूल या सूक्ष्म शरीर उपकरण हैं। मूल है आत्मा के परिणाम । हम' सूक्ष्म शरीर से आगे बढ़कर, आत्मपरिणामों तक पहुंचे। उपादान और निमित्त को समझे बिना साधना को ठीक से नहीं समझा जा सकता। उपादान को समझना होगा, निमित्त को भी समझना होगा, परिणामों को भी समझना होगा। मन के परिणाम, आत्मा के परिणाम निरंतर चलते रहते हैं । आत्मा के परिणाम यदि विशुद्ध चैतन्य केन्द्रों की ओर प्रवाहित होते हैं तो परिणाम विशुद्ध होते हैं और यदि वे ही आत्मपरिणाम वासना की वृत्तियों को उत्तेजना देने वाले चैतन्य-केन्द्रों की ओर प्रवाहित होते हैं, तो परिणाम कलुषित होते हैं । जो चैतन्य-केन्द्र क्रोध, मान, माया और लोभ की वृत्तियों को उत्तेजित करते हैं, जो चैतन्य-केन्द्र आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा को उत्तेजना देते हैं, यदि इन चैतन्य-केन्द्रों की ओर आत्म-परिणाम की धारा प्रवाहित होगी तो उस समय वही वृत्ति उभर आएगी, वैसे ही विचार बनेंगे। माज यह परम आवश्यक हो गया है कि इस ओर गहरी खोज हो । खोज के द्वारा यह स्पष्ट हो जाए कि शरीर के किस भाग में मन को प्रवाहित करने से अच्छे परिणाम आ सकते हैं और शरीर के किस भाग में मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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