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________________ दायित्व का बोध £13 इसका परिणाम यह होता है कि साधक की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ जाती है । जिसमें प्रतिरोधात्मक शक्ति प्रबल होती है वह बाहर से कम प्रभावित होता है । बाहर के कीटाणु उस पर आक्रमण नहीं कर पाते। उस साधक में लड़ने की क्षमता जाग जाती है। इससे दो लाभ होते हैं - बाहर के कीटाणु निष्प्रभ होते हैं और भीतर के कीटाणु नष्ट होने लगते हैं । मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य - दोनों अपेक्षित होते हैं सुखी जीवन के लिए । जो मानसिक स्वास्थ्य की साधना नहीं करता वह शारीरिक स्वास्थ्य कैसे बनाए रख सकता है ? अध्यात्म की साधना करने वाले साधक की यह भ्रान्ति टूट जाती है कि स्वास्थ्य केवल शारीरिक ही होता है । उसे मानसिक स्वास्थ्य बहुत ऊंचा लगता है । अध्यात्म की साधना से दोनों प्रकार के स्वास्थ्य सधते हैं । यह शारीरिक रोगों से मुक्ति दिलाती है और साथ ही साथ आन्तरिक रोगों को भी नष्ट करती है । मनुष्य स्वास्थ्य चाहता है, दीर्घायु चाहता है, सुख और शान्ति - चाहता है । अध्यात्म की साधना से ये सारी बातें फलित होती हैं । एकः प्रश्न होता है कि अध्यात्म चेतना से दीर्घायु कैसे मिल सकती है ? अल्पायु का सबसे बड़ा कारण है-राग-द्वेष का अध्यवसाय । जितने भी मानसिक आवेग हैं वे सब अल्पायु के कारण बनते हैं । वे आयुष्य को क्षीण करते चले जाते हैं । भीतर-ही-भीतर काटते चले जाते हैं । अध्यात्म का मार्ग अध्यवसायों को रोकने का मार्ग है । राग-द्वेष कम करो, रखो, तटस्थ रहो । आने वाले स्पंदनों की उपेक्षा करो । प्रिय-अप्रिय भाव से बचो | अध्यात्म की साधना से अध्यवसाय निर्मल बनते हैं । वे अनजाने ही आयुष्य को लम्बा कर देते हैं । समभाव श्वास- प्रेक्षा का आध्यात्मिक मूल्य है—मन का जागरण और व्यावहारिक मूल्य हैं - प्राण ऊर्जा का बढ़ जाना । (दीर्घश्वास का प्रयोग होता, है तब घर्षण बढ़ता है । घर्षण से प्राणऊर्जा बढ़ती है, प्राणशक्ति बढ़ती है कायोत्सर्ग से भेदज्ञान पुष्ट होता है, शरीर की जड़ता समाप्त होती है, सुखदुःख में सम रहने की वृत्ति जागती है, चेतना जागती है, प्रज्ञा जागती है । शरीर- प्रेक्षा को ठीक से समझना है | लोग शरीर को निस्सार मानते । उसे केवल हाड़-मांस का समूह मानते हैं । लोग उसमें केवल निस्सार को ही देखते हैं । सार जैसा उन्हें कुछ लगता ही नहीं । आत्मा का निवास शरीर में है । आत्मा ज्ञानमय है, दर्शनमय है, चेतनामय है । यही सार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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