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लब्धि-सम्पन्न चतुर्दशपूर्वी के ही हो सकता है। औदारिक एवं वैक्रियशरीर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त रहते हैं वैसे यह शरीर नहीं रहता है। लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर की भी यही स्थिति है। विशिष्ट प्रयोजन से चतुर्दशपूर्वी आहारक शरीर का निर्माण करते हैं, जो अन्तर्मुहूंत में ही अपना कार्य सम्पादित करके पुनः औदारिक शरीर में प्रविष्ट होकर विलीन हो जाता है। यह शरीर शुभ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्शवाले पुद्गलों से निर्मित होता है अतः इसे शुभ कहा जाता है। विशुद्ध परिणमन वाले पुद्गलों से निर्मित यह शरीर स्फटिक के समान अत्यन्त स्वच्छ होता है। इस शरीर से हिंसा आदि कोई भी पापमय प्रवृत्ति नहीं होती है तथा यह किसी भी प्रकार की सावध प्रवृत्ति से उत्पन्न भी नहीं होता है अतः विशुद्ध है। इस शरीर से किसी का विनाश नहीं होता तथा यह किसी के द्वारा विनप्ट भी नहीं होता है अतः अव्याघाती है।२२
आहारक शरीर निर्माण का प्रयोजन
श्रुतज्ञान के किसी भी अत्यन्त सूक्ष्म और अतिगहन विषय में श्रुतकेवली को किसी प्रकार का संदेह उत्पन्न हो जाता है तब वह उस समस्या का समाधान तीर्थंकर से प्राप्त करना चाहता है किंतु उस समय तीर्थंकर उस क्षेत्र में विद्यमान हो जहां औदारिक शरीर नहीं जा सकता, तव वे श्रुतकंवली अपनी विशिष्ट आहारकलब्धि से आहारक शरीर का निर्माण करके उसे तीर्थंकर से पास भेजते हैं। तीर्थंकर के पास से अपनी शंका का समाधान प्राप्त कर वह शरीर पुनः प्रयोक्ता के मूल शरीर में समाविष्ट हो जाता है। आहारक शरीर समचतुरस्र संस्थानवाला होता है। उस शरीर की जघन्य अवगाहना एक हाथ से कम एवं उत्कृष्ट अवगाहना पूर्ण एक हाथ की होती है।
चतुर्दशपूर्वी आहारक शरीर को जहां तीर्थंकर होते हैं, वहां भेजते हैं। कदाचित उस स्थान में तीर्थंकर न हो तो उस शरीर से पुनः एक दूसरे पुतले का निर्माण होता है वह दूसरा पुतला जहां तीर्थंकर होते हैं वहां जाता है, समाधान प्राप्त कर पहले वाले पुतले में प्रविष्ट होता है, वह प्रथम पुतला (आहारक शरीर) पुनः प्रयोक्ता मुनि के औदारिक शरीर में प्रविष्ट होता है। यह सारी क्रिया अत्यन्त शीघ्र सम्पादित हो जाती है। इस शरीर का कालमान अन्तर्मुहूर्त स्वीकृत है।
प्राणीदया, अर्हतों की ऋद्धि का दर्शन, नवीन अर्थ का अवग्रहण और संशय का अपनयन-इन प्रयोजनों से आहारक शरीर अर्हत् की सन्निधि में जाता है।३
व्रात्य दर्शन - २०५
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