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शरीर की परिभाषा
जैन दर्शन के अनुसार शरीरनाम कर्म के उदय से जीव शरीर को प्राप्त करता है । आठ कर्मों में एक कर्म है- नामकर्म, इसी कर्म के कारण जीव छोटा, बड़ा लम्बा, ठिगना आदि विभिन्न प्रकार के शरीर को प्राप्त करता है । शरीर विनाशधर्मा एवं विशरणशील होता है । सर्वार्थसिद्धि में शरीर को परिभाषित करते हुए कहा गया
'विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि
धवला के अनुसार जिस कर्म के उदय से आहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध तथा तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध शरीर योग्य परिणामों में परिणत होकर जीव से सम्बद्ध होते हैं उस कर्म स्कन्ध की शरीर संज्ञा हैं ।
जैन सिद्धान्त दीपिका में सुख और दुःख के अनुभव के साधनको शरीर कहा गया है । शरीर की यह परिभाषा स्थूल शरीरों पर ही लागू हो सकती है । कार्मण शरीर तो निरुपभोग होता है ।
शरीर के प्रकार
प्राणी के जीवन का निर्वाह शरीर के माध्यम से होता है। खान-पान, हलन चलन आदि सारी प्रवृत्तियों का संचालन शरीर के माध्यम से ही होता है । जैन - तत्त्व - मीमांसा में पांच प्रकार के शरीरों का उल्लेख प्राप्त है
१. औदारिक शरीर
२. वैक्रिय शरीर
३. आहारक शरीर
४. तैजस शरीर
२
१. स्थूल २. सूक्ष्म
५. कार्मण शरीर
इन पांच शरीरों को हम स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम इन चार भागों में विभाजित कर सकते हैं
औदारिक शरीर
वैक्रिय एवं आहारक
३. सूक्ष्मतर
तैजस
४. सूक्ष्मतम
कार्मण
पांचों शरीर क्रमशः सूक्ष्म होते जाते हैं । जैसे औदारिक से वैक्रिय, वैक्रिय
व्रात्य दर्शन २०१
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