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________________ प्रयुक्त 'निरवयवत्व' हेतु अपने साध्य नित्यत्व के साथ अविनाभावी नहीं है क्योंकि अनित्य वस्तुएं भी निरवयव देखी जाती हैं, जैसे-ज्ञान। ज्ञान निरवयव होने पर भी अनित्य है। अतः समस्त अनित्यों में विद्यमान तथा समस्त नित्यों में अविद्यमान अविनाभूत कृतकत्वादि धर्म ही अनित्यत्व को सिद्ध करने में समर्थ है, न कि अविनाभाव रहित निरवयत्वादि धर्म, क्योंकि निरवयवत्व हेतु नित्य एवं अनित्य दोनों में रह रहा है अतः यह हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास से दूषित है तथा जैन दर्शन के अनुसार शब्द पौद्गलिक है अतः सावयव है, इसीलिए प्रतिवादी द्वारा प्रयुक्त हेतु पक्षासिद्ध भी है, क्योंकि वह पक्ष शब्द में रह ही नहीं रहा है तथा आकाश का दृष्टांत भी साधन विकल है क्योंकि आकाशप्रदेशों की अपेक्षा से तथा घटाकाश, पटाकाश आदि की अपेक्षा से आकाश भी सावयव है अतः निरवयवत्व हेतु से आकाश रूप दृष्टांत रहित है। ३-४ उत्कर्ष अर्थात् अधिकता और अपकर्ष अर्थात् न्यूनता के द्वारा निरसन करना क्रमशः उत्कर्षसमा एवं अपकर्षसमा जाति है। 'शब्द अनित्य है कृतक होने से' इस अनुमान में दृष्टांत के किसी धर्म का प्रतिवादी साध्य धर्मी में जोड़कर उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग करता है जैसे-यदि घट की तरह कृतक होने से शब्द अनित्य है तब शब्द को घट की तरह मूर्त भी होना चाहिए यदि शब्द मूर्त नहीं है तो घट की तरह अनित्य भी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार शब्द में दृष्टांत के अन्य धर्म की अधिकता का समावेश करते हैं अर्थात् शब्द में मूर्तता धर्म को और जोड़ते हैं। इसी को उत्कर्षसमा जाति कहते हैं। अपकर्ष के द्वारा निरास करते हुए कहते हैं कि घट कृतक होता है तथा अश्रावण भी है, सुनाई नहीं देता है। इसी प्रकार शब्द को भी अश्रावण होना चाहिए। यदि घट की तरह शब्द अश्रावण नहीं है तो उसे घट की तरह अनित्य भी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार शब्द के श्रावणत्व धर्म का अपकर्ष करते हैं। यही अपकर्षसमा जाति है। ५-६ वर्ण्य एवं अवर्ण्य द्वारा खण्डन करना (क्रमशः) वर्ण्यसमा एवं अवर्ण्यसमा जाति है जिसका कथन किया जाता है उसे वर्ण्य और जिसका कथन नहीं किया जाता है उसे अवर्ण्य कहते हैं। सिद्ध करने योग्य साध्य का धर्म वर्ण्य एवं दृष्टांत का धर्म अवर्ण्य कहलाता है। साध्य एवं दृष्टांत के धर्म रूप इन वर्ण्य और अवर्ण्य का विपर्यय करता हुआ अर्थात् साध्य धर्म को दृष्टांत धर्म एवं दृष्टांत धर्म को साध्य धर्म बनाता हुआ प्रतिवादी क्रमशः वर्ण्य एवं अवर्ण्य जाति का प्रयोग करता है, जिस प्रकार से कृतकत्व शब्द का धर्म है उस प्रकार से घट का धर्म नहीं व्रात्य दर्शन . १४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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