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बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भंते विश्व में सर्वत्र तरतमता, विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, उसका क्या कारण है? भगवान ने कर्म को संसार की विचित्रता का हेतु स्वीकार किया है। भगवान बुद्ध ने भी लोक-वैचित्र्य को कर्मज माना है। यदि एक शरीरशास्त्री से पूछा जाये कि व्यक्तियों में पारस्परिक विषमता का कारण क्या है? तो उसका उत्तर होगा 'जीन' संस्कार सूत्र तरतमता के कारण हैं। जैसा जीन होता है, आदमी वैसा ही बन जाता है। सारे विभेदों का मूल कारण जीन को माना गया है। अभी तक विज्ञान जीन तक ही पहुंच पाया है और 'जीन' इस स्थूल शरीर का ही घटक है किन्तु कर्म सूक्ष्म-शरीर का घटक है। कार्मण शरीर सूक्ष्मतम है, उससे कर्म का सम्बन्ध है। वहां से जैसे स्पन्दन आते हैं, आदमी वैसा व्यवहार करने लगता है। कर्मशास्त्र की भाषा में कर्म-व्यवहार, तरतमता का नियामक है।
भगवान महावीर ने कर्मवाद के क्षेत्र में जो सूत्र दिये हैं, उनका दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत बड़ा महत्त्व है। भगवान महावीर ने कहा-किया हुआ कर्म भुगतना पड़ेगा। यह सामान्य सिद्धान्त है। इसके अपवाद सूत्र भी हैं। कर्मवाद के प्रसंग में भगवान महावीर ने उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन और अपवर्तन के सूत्र भी दिए। उन्होंने कहा-कर्म को बदला जा सकता है, कर्म को पहले भी उदय से लाकर तोड़ा जा सकता है। उनके स्थिति एवं विपाक को कम, अधिक भी किया जा सकता है। पुरुषार्थ की सक्रियता से कर्म को बदला भी जा सकता है। संक्रमण का सिद्धान्त कर्मवाद की बहुत बड़ी वैज्ञानिक देन है। आधुनिक 'जीन-विज्ञान' की जो नई वैज्ञानिक धारणाएं और मान्यताएं आ रही हैं, वे इसी संक्रमण-सिद्धान्त की उपजीवी है। आज वैज्ञानिक इस शोध में लगे हुए हैं एवं सफलता को भी प्राप्त कर रहे हैं। संक्रमण का सिद्धान्त 'जीन' को बदलने का सिद्धान्त है। कर्म-परमाणुओं को बदला जा सकता है। कर्म की सजातीय प्रकृतियों का परस्पर परिवर्तन संक्रमण कहलाता है। संक्रमण के द्वारा शुभ कर्म अशुभ में तथा अशुभ कर्म शुभ में परिवर्तित हो सकता है। स्थानांग सूत्र में कर्म के संक्रमण सिद्धान्त की चतुर्भंगी मिलती है-चउविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा
'सुभे नाममेगे सुभविवागे, सुभे नाममेगे असुभविवागे,
असुभे नाममेगे सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे। संदर्भ १. शरीर-क्रिया विज्ञान, पृ. २
१०४ . व्रात्य दर्शन
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