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होती है, वैसे ही कर्म की भी रासायनिक प्रक्रिया होती है। कर्म पौद्गलिक है, भौतिक है। भगवान महावीर की यह महत्त्वपूर्ण स्थापना है। महावीर ही एक अकेले व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने यह सिद्धान्त स्थापित किया कि कर्म पौद्गलिक है। अन्यान्य कर्मवादी दार्शनिकों ने कर्म को वासना एवं संस्कार के रूप में स्वीकार किया है किन्तु कर्म को पौद्गलिक नहीं माना है। भगवान महावीर की कर्म-पौद्गलिकत्व की अभिनव अवधारणा है, जो विज्ञान के तथ्यों के अधिक सन्निकट है। कर्मग्रन्थियों के स्रावों को प्रभावित करते हैं।
ग्रन्थि-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में यदि हम कर्मों के शरीर में प्रकट होने के स्थान पर विमर्श करें तो सम्भावित प्राक्कल्पना की जा सकती है। पीनियल एवं पीच्यूटरी ग्रन्थि ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम एवं उदय का सम्भावित क्षेत्र हो सकती है। जब इन ग्रन्थियों का असन्तुलित स्राव होता है तब व्यक्ति प्रतिभा सम्पन्न एवं बुद्धिमान नहीं हो सकता। यह विज्ञान-मान्य सिद्धान्त है। इस अवस्था की ज्ञानावरण आदि की उदयावस्था से तथा सन्तुलित या विशिष्ट स्राव आंशिक रूप से क्षयोपशम से तुलनीय है।
थायराइड ग्रन्थि मुख्य रूप से शरीर के ह्रास-विकास से सम्बन्धित विज्ञान में मानी गई है, जैन-दर्शन के कर्म-सिद्धान्त के प्रसंग में नाम कर्म से इसका सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। गोनाड, एड्रीनल ग्रन्थि मोहकर्म की प्रकृतियों के उदय के साथ काफी साम्य रखती है। कर्मशास्त्र में मोह के उपभेद-काम, क्रोध, लोभ, भय आदि के संवेगों के उदय से जीव की जो स्थिति बनती है, विज्ञान ने वैसा उल्लेख इन ग्रन्थियों के सम्बन्ध में किया है। यद्यपि कर्म सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से चिपके हैं। आत्मा भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है अतः शरीर के किसी भी भाग से कर्म का प्रकटीकरण हो सकता है किन्तु मुख्य रूप से ग्रन्थियों के प्रभाव स्थल को कर्म का प्रभाव-क्षेत्र माना जा सकता है। कर्म और जीन
आज का शरीर-विज्ञान मानता है कि शरीर का महत्त्वपूर्ण घटक 'जीन' है। यह संस्कार-सूत्र है। शरीर में खरबों कोशिकाएं हैं। प्रत्येक कोशिका में क्रोमोसोम है। जीन का आश्रय-स्थल क्रोमोसोम-गुणसूत्र है। क्रोमोसोम सूक्ष्म है। जीन उससे भी अधिक सूक्ष्म है। प्रत्येक गण-सूत्र में हजारों जीन होते हैं तथा प्रत्येक जीन पर लाखों आदेश अंकित रहते हैं, ऐसा माना जाता है। कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि कर्म-स्कन्ध में अनन्तानन्त आदेश लिखे हुए होते हैं। एक
व्रात्य दर्शन - १०३
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